कल मैंने धर्मों की शुरुआत के विषय में चर्चा करते हुए बताया था कि कि धर्म एक विचार, नियम, सिद्धान्त और दर्शन के रूप में समाज में कैसे रूढ़ हुआ। समय के किसी बिन्दु पर लोगों ने अपने ईश्वर की कहानियाँ लिखना शुरू किया और इस तरह धर्मग्रन्थों का विचार और साथ ही साथ उनकी समस्याएँ शुरू हो गईं। मुझे लगता है आप में से अधिकांश लोग जानते हैं कि मैं धर्मग्रंथों का फैन नहीं हूँ और जब लोग धर्मग्रंथों को शब्दशः ग्रहण करते हैं, उसे सच मानकर अपने कथन और व्यवहार की सत्यता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो मुझे बड़ी कोफ्त होती है। कुछ दिन पहले मैंने अपने एक मित्र से अपने इस रवैये का एक और कारण बताया: धर्मग्रंथों में व्याप्त हिंसा।
अगर आप किसी धर्मग्रंथ को उससे एक दूरी बनाकर पढ़ें और अपने मस्तिष्क को अपने अवचेतन में स्थित उस पर विश्वास करने की इच्छा से मुक्त रखें तो आप पाएंगे कि ये धर्मग्रंथ बेहद हिंसक होते हैं। हिन्दू धर्मग्रंथो के बारे में यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ और इस्लाम के धर्मग्रंथों के विषय में भी ऐसा ही सुना है। मेरी पत्नी बाइबल के बारे में यही बात बताती है-हालांकि हिंसा सिर्फ उसके पहले हिस्से में है। मेरा विश्वास है कि दूसरे धर्मग्रंथों के संबंध में भी यही बात सच होगी। कोई भी धर्मग्रंथ निचोड़कर देख लें, उनसे रक्त की बूंदें रिस रही होंगी। सभी युद्धों से भरे हुए हैं, रक्तपात और दुख उनसे निसृत होता है।
उन कहानियों के बारे में आपको अजीब बात यह नज़र आती है कि सारी हिंसा ईश्वर द्वारा की जाती है! वे जिन्हें सबसे महान कहा जाता है और जिनकी कथाएँ हमारे धर्मग्रंथों में दर्ज हैं! उनमें यह दर्ज है कि हमारे ईश्वरों ने कितने लोगों की हत्याएँ कीं। ईश्वर हथियार लेकर चलते हैं, उनके पास संहारक शक्तियाँ होती हैं और वे उनका उपयोग संसार के संहार में करते भी हैं। एक हिन्दू देवी है, जो मुंड-माला गले में लटकाए घूमती है-इससे अधिक रक्तरंजित बिम्ब कोई हो सकता है?
इसमें कोई शक नहीं कि धार्मिक लोग कहते हैं कि ईश्वर किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या नहीं करता। शैतान होता है और ईश्वर होता है। एक पवित्र शक्ति होती है और एक बुरी शक्ति। ईश्वर में सिर्फ अच्छी शक्तियाँ विद्यमान हैं और वह सिर्फ बुरे लोगों का संहार करके धरती पर शांति स्थापित करता है। अंत में सिर्फ अच्छाई की विजय होती है। हमेशा इन कहानियों का सुखांत होता है और कहानियों से किसी सदाचरण की सीख मिलती है।
जैसा कि हर धार्मिक व्यक्ति विश्वास करता है, अगर ईश्वर इतना ही सर्वशक्तिमान है तो सारे झगड़ों का निपटारा वह किसी अहिंसक तरीके से क्यों नहीं करता? उसे हत्या क्यों करनी पड़ती है? क्या वह पापी व्यक्तियों के विचारों को परिवर्तित नहीं कर सकता? अगर उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है तो उसे चुटकियों में धरती पर शांति स्थापित कर देनी चाहिए!
मुझे समझ में नहीं आता कि हमें ऐसे हिंसक तरीकों का अस्वीकार क्यों नहीं कर देना चाहिए। इसके अलावा भी ईश्वरों के बहुत से ऐसे अवांछनीय और अग्राह्य कार्य हैं, जिनका ज़िक्र धर्मग्रंथों में मिलता है और जिन्हें हम स्वीकार नहीं कर सकते। जुआ, अपहरण, बलात्कार, डकैती और न जाने कितनी बाते हैं, जिन्हें आप इन धर्मग्रंथों में पढ़ सकते हैं! ग्रीक मिथकों में एक देवता है, जीयस, जो अपनी पत्नी देवी हेरा को छोड़कर मानव महिलाओं के पीछे पड़ा रहता है। देवताओं द्वारा किया जाने वाला जारकर्म या परस्त्रीगमन आस्तिक मनुष्यों और किसी भी सुनने या पढ़ने वाले के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण!?
लेकिन यह आ कहाँ से रहा है? इन धर्मग्रंथों में देवताओं का ऐसा घृणित व्यवहार क्यों दर्शाया गया है? वे कब लिखे गए, इस बात पर विचार करें! जिस समय ये कहानियाँ लिखी गईं, हर तरफ यही सब हो रहा था। सब तरफ ज़मीनों, विश्वासों के लिए युद्ध हो रहे थे। राजा अपनी सेनाएँ यहाँ से वहाँ भेजते रहते थे, हर तरफ डकैतों का साम्राज्य था, लोग मारे जाते थे, उनकी औरतों पर तलवार की नोक पर बलात्कार होते थे, हर तरफ हिंसा व्याप्त थी। लोग रोज़ यही देखते थे, दूसरों से सुनते थे और यही उनके धर्मग्रंथों का विषय बना। आखिर, कोई भी साहित्य उस समाज का दर्पण ही तो होता है।
ये कहानियाँ बहुत मनोरंजक हुआ करती हैं। मैं उनकी तुलना आज के हिन्दी सिनेमा के साथ करता हूँ-दोनों में हिंसा है, प्रेमकथाएँ हैं, एक बुरा और एक अच्छा व्यक्ति या उनके समूह हैं, और अंत में अच्छाई की विजय होती है। सुनने या पढ़ने वाले के लिए एक सुखद और मनोरंजक अंत! लेकिन इस तुलना में एक गड़बड़ है: हिन्दी सिनेमा को कोई परम सत्य नहीं मानता कि अपने जीवन में उनका अनुकरण किया जाए! यही वह गड़बड़ है।
जब आप मेरी तरह पूछेंगे कि इन धर्मग्रंथों में इतनी हिंसा क्यों है और क्यों ईश्वर खुद ऐसे घृणित कार्य करते हैं तो कट्टर, धार्मिक लोग कहेंगे कि ईश्वर के कामों पर प्रश्न करने वाले आप कौन होते हैं। आखिर वह ईश्वर है और आप मनुष्य! इन अजीबोगरीब कामों को उचित ठहराने वाला एक और उत्तर यह होता है कि ईश्वर की महिमा अनंत है और यह सब उसका खेल है!
सच यह है कि ये धर्मग्रंथ बहुत पुरातन काल में लिखे गए थे। उन्हें मनुष्यों ने लिखा था और उस समय के समाज के लिए लिखा था। आज के आधुनिक समाज के लिए उनका कोई उपयोग नहीं हो सकता। उन्हें आप मनोरंजन के रूप में देख, सुन सकते हैं, उनमें से कुछ अच्छी कहानियाँ, कल्पनाएँ और संदेश उठाकर उनका आनंद ले सकते हैं मगर कृपा करके उन्हें अटल सत्य मानने की भूल न करें, उन्हें पवित्र न बताएं और यह समझना बंद कर दें कि जिनके बारे में आपने पढ़ा वे कोई देवता या ईश्वर थे। वे सिर्फ कहानियाँ हैं, मिथक हैं।