कुछ समय पहले रमोना ने अपनी फेसबुक वाल पर एक टिप्पणी पढ़ी और ऊँचे स्वर में उसके मुँह से अनायास निकल पड़ा, ' आध्यत्मिक मूर्खता!' उसके स्वर में हल्का सा तिरस्कार का भाव था, जिसे सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ और मैंने पूछा, 'ऐसा क्या पढ़ लिया भई!' उसके किसी जान-पहचान वाले ने एक पोस्ट की थी, जिसमें महिलाओं को सलाह दी गई थी कि वे बच्चे को प्राकृतिक रूप से जन्म दें, न कि सी-सेक्शन द्वारा बच्चा पैदा करने का निर्णय लें। टिप्पणी में उनसे दर्द से बचने के लिए लगाया जाने वाला एपिड्यूरल लगवाने के लिए भी हतोत्साहित किया गया था। कारण? उसके अनुसार, महिलाएँ प्रसव-पीड़ा के ज़रिए ही अपने बच्चे से घनिष्टता के साथ जुड़ पाती हैं और इसलिए एपिड्यूरल या सी-सेक्शन द्वारा प्रसव माँ और बच्चे के बीच विकसित होने वाले लगाव में बाधक होता है।
खैर, मेरी पत्नी सोशल नेटवर्क पर चर्चा करने में ज़्यादा रस नहीं लेती इसलिए वहाँ उसने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन बाद में हमने इस विषय पर जो बातें कीं, वे उस पोस्ट को पूरी तरह ख़ारिज कर देती हैं।
निश्चित ही, यह तो हम जानते हैं कि इन विचारों का उद्गम स्थल कहाँ है: आजकल बच्चे की पैदाइश के दिन और समय का पहले से चुनाव करने का नया चलन शुरू हो गया है और जब बच्चे का वज़न एक ख़ास सीमा तक बढ़ जाता है तो उसे शल्यक्रिया द्वारा सी-सेक्शन के ज़रिए सुरक्षित रूप से बाहर निकालना संभव हो जाता है। ऐसी भी औरतें हैं जो प्राकृतिक रूप से बच्चा पैदा करने की कोशिश भी नहीं करतीं, चाहे वह दर्द के डर से हो या किसी और मनगढ़ंत कारण से।
वह व्यक्ति शायद इसी समस्या का समाधान खोजने की कोशिश कर रहा था। रहस्यवादी अतिशयोक्तियों और कण-कण के बीच मौजूद आध्यात्मिक संबंधों पर अपने विश्वास के चलते वह महज यह नहीं कह सकता: जन्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, उसके ज़रिए अपने शरीर में पैदा हो रहे परिवर्तनों को स्वाभाविक मानकर सहजता के साथ स्वीकार करें। नहीं, हमें उसमें प्रेम और लगाव का अतिरिक्त संचार करना चाहिए, जिससे उसे और अधिक महत्वपूर्ण और ज़्यादा आध्यात्मिक बनाया जा सके।
कुछ लोगों ने इस सिद्धांत पर शक ज़ाहिर करते हुए टिप्पणियाँ लिखीं और उसकी सचाई का प्रमाण माँगा लेकिन उसने कह दिया कि उसे प्रमाण की ज़रूरत नहीं है। यह अनुभव की बात है कि लोग उन चीजों से ज़्यादा प्रेम करते हैं, जिन्हें वे बहुत तकलीफ उठाकर प्राप्त करते हैं।
गज़ब! मतलब हर माँ, जिसके बच्चे को चिकित्सकीय जटिलताओं के चलते शल्यक्रिया द्वारा बाहर निकालना पड़ता है, चिल्ला-चिल्लाकर डॉक्टरों और रिश्तेदारों को कोसती है! क्योंकि उसे प्रसव-पीड़ा नहीं सहनी पड़ी, उसे वह दर्द अनुभव नहीं करना पड़ा, जो कथित रूप से उसके अंदर और ज़्यादा प्यार और लगाव भर देता!
भयानक प्रसव-पीड़ा के बाद पैदा हुए अपने बच्चे के प्रति माँ के उत्कट प्रेम के बारे में इस तरह बात करना बड़ा भावपूर्ण लग सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि वह जन्म देते समय दर्द के कारण, बल्कि कहा जाना चाहिए कि दर्द के बावजूद, अपनी सारी परेशानियाँ और लगाव भूल जाती है। लेकिन यह पूरी तरह मूर्खतापूर्ण है क्योंकि इसका अर्थ यह होगा कि जो महिलाएँ सी-सेक्शन के ज़रिए या सिर्फ दर्द सहन न कर पाने के कारण एपिड्यूराल लगवाकर बच्चे पैदा करती हैं, वे अपने बच्चे से उतना प्रेम नहीं करतीं। अपने बच्चे के साथ उतना लगाव महसूस नहीं करतीं।
अपरा के जन्म के समय हमने भी सी-सेक्शन करवाया था। डॉक्टरों की बहुतेरी कोशिशों के बाद भी रमोना को न सिर्फ दर्द नहीं उठा बल्कि बच्चे को जन्म देने की पूरी प्रक्रिया के दौरान उसे किसी असुविधा का एहसास भी नहीं होता था। अंत में जब डॉक्टरों ने हमसे कहा कि प्राकृतिक प्रसव के लिए और इंतज़ार करना खतरे से खाली नहीं है तो हमने अपनी बच्ची के लिए तय किया कि वह इस संसार में शल्यक्रिया के ज़रिए ही प्रवेश करे। क्या हमें वह प्रसव-पीड़ा और लगाव अनुभव करने के लिए हृदयाघात या मस्तिष्काघात का खतरा मोल लेना चाहिए था? क्या इससे बच्चे को जन्म देने का हमारा अनुभव कम मूल्यवान हो जाता है?
जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं होता। और मैं सोच-समझकर "प्रसव का हमारा अनुभव" कह रहा हूँ क्योंकि मैं भी शुरू से आखिर तक इस अनुभव में सम्मिलित रहा था। जब डॉक्टर रमोना के पेट पर चीरा लगा रहे थे, मैं उसका हाथ पकड़े वहीं खड़ा था और देख रहा था कि यह आश्चर्य कैसे प्रकट होता है और कैसे मेरी बेटी पहली बार इस संसार को अपनी आँखों से देखती है।
जी नहीं, आप यह नहीं कह सकते कि अपरा से रमोना का लगाव ज़रा भी कम है, सिर्फ इसलिए कि उसने सात घंटे प्रसव-पीड़ा नहीं झेली- क्योंकि नवजात शिशु के साथ किसी भी दूसरी महिला के लगाव से उसके लगाव में मैंने आज तक कोई अंतर नहीं पाया है! आप मुझसे यह भी नहीं कह सकते अपरा का जन्म-समय किसी दूसरे बच्चे के जन्म-मुहूर्त से रत्ती भर भी कम महत्वपूर्ण है- क्योंकि हम अस्पताल में बिताए अपने समय को शुरू से आखिर तक आज भी पूरी शिद्दत के साथ याद करते हैं!
और यह बात दुनिया की हर महिला के लिए सच है। अपने बच्चे के प्रति आपका लगाव आपके प्रेम पर निर्भर है न कि प्रसव-पीड़ा के किसी ख़ास अंतराल पर!
अंत में यह कि मेरे पास एक और तर्क है, बल्कि सबसे बड़ा तर्क: मैं अपनी बेटी के साथ बहुत लगाव महसूस करता हूँ। मैंने कोई प्रसव-पीड़ा नहीं झेली, यहाँ तक कि वह मेरे पेट में भी नहीं रही लेकिन फिर भी वह मेरा अटूट हिस्सा है- इस बात से इस तथ्य पर कोई असर नहीं पड़ता कि वह किस प्रक्रिया से गुज़रकर इस संसार में आई है। पिता भी अपनी बेटी से उतना ही लगाव रखता है भई!
तो, जिन मामलों में आध्यात्मिक मूर्खताओं की ज़रूरत नहीं है, उनसे उसे दूर ही रखिए- इससे आप दूसरों को अपमानित करने से बचे रहेंगे!