पिछले हफ्ते मैंने आपको सन 2006 के दौरे के बारे में बताया था, जब मैं और यशेंदु एक ऐसे आयोजक के यहाँ रहे थे, जिसने हमसे अपनी क्षमता से बहुत ज़्यादा का वादा कर लिया और फिर उसे पूरा नहीं कर पाई-और फिर सारे हादसे को हमें होनी मानकर स्वीकार करना पड़ा था। उस साल हमें इसी तरह के और भी कई वाकयों से दो-चार होना पड़ा; उनमे से एक तो कुछ ज़्यादा ही असुविधाजनक सिद्ध हुई थी: जब हमारा मेज़बान और उसकी पत्नी लगातार लड़ते-झगड़ते रहते थे!
जी हाँ, वह मेरा एक मित्र था, जिससे मेरा परिचय साल भर पहले अपने एक कार्यक्रम के दौरान हुआ था। वह अपने घर में मेरा एक कार्यक्रम रखना चाहता था और उस यात्रा में समय की कमी वजह से कार्यक्रम हो नहीं पाया और हमने उसे 2006 के अगले दौरे में उसके घर कार्यक्रम रखने का आश्वासन दिया था। तय समय पर मैं और यशेंदु उसके घर पहुँचे और पति-पत्नी ने हमारा हार्दिक स्वागत किया। पहली शाम बहुत अच्छी रही जब हमने एक ध्यान-सत्र आयोजित किया और अगले कुछ दिनों की कार्ययोजना तैयार करते रहे, यहाँ तक कि कुछ लोगों ने उन कार्यक्रमों की बुकिंग भी कर ली। तो इस तरह हमें उनके साथ काम से भरे-पूरे सप्ताह की प्रत्याशा थी-लेकिन सबेरे-सबेरे, जब अभी हम सोकर उठे ही थे, हमें बगल वाले कमरे से किसी के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। वह मेरे मित्र की पत्नी थी।
खैर, हमने अधिक ध्यान नहीं दिया क्योंकि किसी का असहमति में उत्तेजित होना, शोरगुल के साथ भी, हमारे लिए नई या असामान्य बात नहीं थी क्योंकि हम अक्सर लोगों के घरों में ही रहते रहे हैं। हम लोग उस वक़्त जर्मन बिलकुल नहीं जानते थे और इस बात को समझ रहे थे कि किसी निश्चित परिणाम पर कूद पड़ना उचित नहीं होगा: हो सकता है वह किसी बात से परेशान हो। हम उस बात को बिलकुल भूल गए-लेकिन शाम को फिर वही चीखना-चिल्लाना और इस बार तो दोनों एक-दूसरे पर अपना गुस्सा उतार रहे थे!
अगले कुछ दिन जब-तब दोनों एक-दूसरे पर खीझते-झुँझलाते और चिल्लाते-चीखते रहते थे और निश्चय ही उनकी आपसी लड़ाइयाँ क्रमशः गंभीर होती जा रही थीं। पहले उन तमाशों को वे हमसे छिपाने की कोशिश करते रहे, विवाद होने पर हमें छोड़कर दूसरे कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लेते थे। लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि मैं बाथरूम की तरफ जा रहा था तो देखा मेरा मित्र टेढ़ा मुँह बनाए, सीढियाँ चढ़ता ऊपर आ रहा है और नीचे से उसकी पत्नी उस पर चीख रही है। मित्र ने नोटिस किया कि मैंने उसका चिल्लाना सुन लिया होगा और तुरंत उसके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ उभर आईं।
वह बड़ी देर मेरे सामने अफ़सोस ज़ाहिर करता रहा कि वह सोच रहा था कि यह सप्ताह इतना बुरा नहीं होगा। सचाई यह थी कि उसके और पत्नी के बीच कई हफ़्तों से यह रोज़मर्रा की सामान्य बात हो चुकी थी। वे रोज़ ही लड़ते-झगड़ते रहते थे। और दिन में कई-कई बार।
स्वाभाविक ही, मैंने अपनी तरफ से उनकी सहायता का प्रस्ताव रखा। मैंने कहा कि दोनों के साथ एक जीवन-साथी सत्र रख लेते हैं और संभव है हम सब मिलकर कोई बेहतर रास्ता निकाल पाएँ, झगड़े का कोई हल, कोई सार्थक तरीका। मेरे प्रस्ताव पर वह खुश हुआ और कहा कि वह अपनी पत्नी से बात करेगा।
दूसरे दिन वह आया और मुझसे कहा कि उसकी पत्नी ने सहायता का मेरा प्रस्ताव ठुकरा दिया है।
खैर, कोई न चाहता हो तो आप उसकी सहायता नहीं कर सकते। लेकिन मैंने इस मामले में अपने मित्र का दृष्टिकोण सुना और सलाह देकर कि मसले पर वह क्या कर सकता है, उसकी थोड़ी-बहुत मदद करने की कोशिश की-लेकिन उनके घर से निकलते हुए हमारे मन में यही बात घुमड़ रही थी कि यह सम्बन्ध ज़्यादा दिन चलने वाला नहीं है। और अगर वे साथ रहते भी हैं तो जीवन भर लड़ते-झगड़ते ही रहेंगे!
मैं आशा ही कर सकता था कि भविष्य में मुझे कभी भी ऐसे घर में नहीं रहना पड़ेगा जहाँ इस तरह की समस्याएँ मौजूद हों-और कामना करता रहा कि मेरे किसी भी मित्र के यहाँ इस तरह की समस्याएँ दरपेश न हों!