कल मैंने आपको बताया था कि धर्म विचार रखने और कोई धारणा बनाने की आपकी स्वतंत्रता का हनन करता है। वास्तव में धर्म आपको निर्देशित करना चाहता है कि आपको क्या करना चाहिए और दावा करता है कि ये निर्देश देने का उसे हक़ हासिल है। सारे धर्म दावा करते हैं कि वे जानते हैं कि मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए। यहाँ तक कि वह अपने अनुयायियों को हत्या करने का निर्देश भी दे सकता है। और यही समस्या की जड़ है!
पहले जब मैं गुरु हुआ करता था तो लोग मुझसे वास्तव में अपेक्षा करते थे कि मैं उन्हें बताऊँ कि वे क्या करें। एक धर्मोपदेशक के रूप में, जिसका लोग अनुगमन करते हैं, यह भी मेरी एक भूमिका हुआ करती थी। लोग अपने प्रश्न या अपनी समस्याएँ लेकर मेरे पास आते थे और मैं भी अपने लिए यह उचित मानता था कि उन्हें बताऊँ कि उस विशेष परिस्थिति में वे ठीक-ठीक क्या करें। मैं भी उनके सामने अपने विचार रख देता था और जानता होता था कि वे वैसा ही करेंगे। अपने निर्णयों की पूरी ज़िम्मेदारी वे मुझे सौंप देते थे, जिनमें से कुछ तो जीवन के बड़े अहम निर्णय होते थे।
फिर मुझमें परिवर्तन आया। गुफा में रहने के बाद मुझे लगा कि मुझे यह सब नहीं चाहिए। मैं दूसरों से बड़ा नहीं बल्कि उनके बराबर होना चाहता था। इसका यह अर्थ भी था कि मैं दूसरों के निर्णयों की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहता था! सिर्फ मैं अपना जीवन जीना चाहता था। अपने अनुभवों और विचारों से अगर मैं किसी की मदद कर सकता था तो ऐसा करके खुश होता था लेकिन चाहता था कि वे अपने निर्णय स्वयं लें, अपनी भावनाओं पर विश्वास करें और सीखें कि उनके अनुसार किस तरह आगे बढ़ा जाए!
तो इस तरह मैं नास्तिक बन गया और आज यहाँ बैठकर सिर्फ अपने विचार लिखता हूँ। कोई भी पाठक उनके बारे में अपने तई सोचने के लिए और उनके आधार पर अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। अपने सलाह-सत्रों में मैं यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर देता हूँ: मैं आपको सिर्फ अपना नज़रिया बता सकता हूँ लेकिन अपने निर्णय आपको खुद लेने होंगे और परिणामों ज़िम्मेदारी भी आपकी होगी!
लेकिन धर्म है ही इसलिए कि लोगों को बताए कि क्या सोचना है और क्या करना है। धर्म विभिन्न विचारों को सुनने और उन पर विचार करने में भरोसा नहीं करता। धर्म आपको यह स्वतंत्रता नहीं देता कि आप अपने लिए कोई अलग चुनाव कर सकें। धर्म आपको आदेश देता है कि यह करो।
धर्मगुरु विश्वास करते हैं कि उन्हें यह हक हासिल है और जहाँ तक इस्लामी रूढ़िवादियों का सवाल है, वे तो यह भी सिखाते हैं कि जो उनकी बातों का अनुसरण नहीं करते, उनकी हत्या करना जायज़ है! इस्लाम के धार्मिक नेता अपने अनुयायियों से कहते हैं कि अपनी कमर में बम लगाकर सैकड़ों की संख्या में दूसरे लोगों की जान लो और खुद इस्लाम की राह में शहीद हो जाओ।
कुछ लोग होते हैं जो चाहते हैं कि कोई उन्हें बताए कि उन्हें क्या करना चाहिए। वे ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहते और अपने धर्म पर या उपदेशक, गुरु या किसी पर भी, जो उन्हें बता सके कि क्या करना चाहिए, अपने कामों की ज़िम्मेदारी डाल देते हैं।
कोई भी सोचने-समझने वाला व्यक्ति महज धर्म के लिए आतंकवादी, खुदकुश बमबार या हत्यारा नहीं बन सकता। वास्तव में यह धर्म का छल है जो उन्हें इस सीमा तक झाँसा देने में कामयाब होता है। ऐसी मनःस्थिति से, जहाँ वे अपने निर्णय खुद नहीं लेना चाहते से शुरू होकर वे वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ वे हर वह काम करने को तैयार हो जाते हैं, जिन्हें वे कभी नहीं करते अगर अपने निर्णय और उनकी ज़िम्मेदारी खुद ले रहे होते। दूसरों को नुकसान पहुँचाना, उनकी हत्या करना, दुनिया को शोक और संताप में झोंक देना!
मैं आपको सलाह देना चाहता हूँ कि अपने लिए सोचें। अपने जीवन की ज़िम्मेदारी लें और धर्म को इसकी इजाज़त न दें कि वह आपको बहला-फुसला सके, झाँसा दे सके और मजबूर कर सके कि आप वह सब करने के लिए तैयार हो जाएँ जो आप कभी नहीं करते, अगर अपने निर्णय खुद ले रहे होते।