क्या मोनोगमी अप्राकृतिक है?
क्या अपने जीवन साथी के अलावा किसी और के साथ यौन कल्पनाओं का होना मानसिक विकृति है?
क्या किसी खूबसूरत स्त्री/पुरुष को देखकर उसके संसर्ग के ख्यालों की वजह से आपको ग्लानि और अपराध बोध में रहना चाहिए?
मैं यहाँ इस लेख में जेंडर (स्त्री/पुरुष वाचक) अथवा सूक्ष्म प्रकृति (सेक्स/प्रेम) के आधार पर शब्दों के वेरिएशन में न जाकर मोनो (एक साथी प्रवृत्ति) और पॉली (बहु साथी प्रवृत्ति) कह कर संबोधित करूंगा।
स्तनधारियों में, केवल 3 से 5 प्रतिशत प्रजातियाँ मोनो हैं। कुछ सबूत और रिपोर्ट्स तो यह कहती हैं कि स्तनधारियों में कोई भी मोनो नहीं होता। पश्चिमी साम्राज्यवाद से पहले, 83 प्रतिशत समाज पोली होता था।
निश्चित रूप से सभी जीव पॉली नहीं होते, हालाँकि मोनो प्रजातियाँ बहुत दुर्लभ है, परन्तु कुछ पक्षी जैसे कि Geese (हंस की एक प्रजाति) तो अपने साथी की मृत्यु के बाद भी किसी दूसरे साथी से संभोग नहीं करती।
वैज्ञानिक शोध यह कहते हैं कि मनुष्य पॉली प्रवृत्ति का होता है। असल में पॉली प्रवृत्ति हमारे जीन्स (DNA) में है। हमारे पूर्वज पॉली प्रवृत्ति के ही थे। मनुष्य का अस्तित्व विवाह की परिकल्पना से बहुत पुराना है।
आनुवंशिक प्रमाणों के आधार पर, लगभग पाँच हज़ार से दस हज़ार साल पहले पॉली से मोनो प्रथा की ओर एक महत्वपूर्ण बदलाव हुआ। इस बदलाव के क्या सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक कारण थे ये एक अलग लेख का विषय है। परन्तु प्राचीन मानव सभ्यता में धरती के हर कोने पर धर्मों के उदय होने के पहले अथवा बाद में भी समाज में पॉली प्रवृत्ति दिखाई देती है। वो चाहे राजा महाराजाओं या नवाबों के हरम हों या फिर कृष्ण, दशरथ अथवा द्रोपदी जैसे पौराणिक पात्र। इस्लाम पुरुषों को तो बहु पत्नी रखने की इजाजत देता है परन्तु शायद पुरुष प्रधान होने के कारण महिलाओं को नहीं। कुछ आदिवासी कबीलों में पुरुष और महिलाओं दोनों मे पॉली प्रवृत्ति आज भी पाई जाती है।
वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के बायोलॉजिस्ट प्रोफेसर David Barash लिखते हैं कि मोनोगमी प्राकृतिक नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं है कि मोनोगमी संभव नहीं है अथवा यह वांछित (desirable) नहीं है। डेविड आगे उदाहरण देते हैं, दरअसल हम उन चीजों को अच्छे से करते हैं जो कि आसान नहीं हैं, जैसे कि वायलिन बजाना।
वैज्ञानिक अध्ययनों से ये निष्कर्ष निकला है कि मनुष्य की यौनिकता का निर्णय उसके मस्तिष्क में होने वाले हार्मोन्स के स्त्रावों से होता है। हमारे मस्तिष्क में केमिकल हैं और उनके रिसेप्टर्स हैं। रासायनिक (chemical) और जैविक (biological) दृष्टिकोण से, मनुष्य की यौनिकता न केवल मस्तिष्क में जारी होने वाले विशेष हार्मोन पर निर्भर करती है, बल्कि इन हार्मोनों के रिसेप्टर्स पर भी निर्भर करती है। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह केमिकल और रिसेप्टर्स हर व्यक्ति में बहुत ही अलग अलग हो सकते हैं और मस्तिष्क की वायरिंग के आधार पर एक मनुष्य की यौनिकता, दूसरे मनुष्य की यौनिकता से बहुत ही भिन्न हो सकती है।
इन सारे शोधों को पढ़कर ये लगता है कि यदि अपने जीवन साथी के अतिरिक्त भी किसी को देख कर आपका उसके प्रति यौनाकर्षण होता है तो वह बहुत ही स्वाभाविक है। उस यौनाकर्षण के लक्षण आपके शरीर में परिलक्षित हों तो यह भी बहुत स्वाभाविक है। असल में तो सेक्स सबसे पहले आपके मस्तिष्क में प्रगट होता है और फिर रक्त वाहिनियों के जरिए यह संदेश आपके यौनांगों तक पहुंचता है। अब ये बात अलग है कि सामाजिक वर्जनाओं के चलते आप उसे छू न पाएं अथवा उससे कुछ कह न पाएं परन्तु अपने ख्वाबों में तो आप उसके साथ वह सब कुछ कर रहे होते हैं, जिसे कि बहुसंख्य मोनो समाज में वर्जनीय समझा जाता है।
मस्तिष्क से लेकर यौनांगों तक होने वाली यह सारी प्रतिक्रिया पूरी तरह स्वाभाविक और प्राकृतिक है इसलिए पॉली प्रवृत्ति भी प्राकृतिक है। जिन्होंने इस पॉली प्रवृत्ति को अपना लाइफ स्टायल बनाया है उन्हें आज की आधुनिक भाषा मे स्विंगर्स (Swingers) कहा जाता है। दुनिया में करोड़ों दम्पति स्विंगर लाइफ स्टायल को जी रहे हैं। एक बात और भी, पॉली प्रवृत्ति वाले लोगों के भी अपने एथिक्स होते हैं। ऐसा नहीं है कि वो जब चाहे जहां चाहे हर किसी के साथ सेक्स कर लेते हैं!
भले ही वैज्ञानिक रिसर्च और रिपोर्ट्स पॉली प्रवृत्ति को अधिक प्राकृतिक और स्वाभाविक बताती हों परन्तु आज का अधिसंख्य मानव समाज मोनो है। मैं पॉली अथवा मोनो किसी प्रवृत्ति की वकालत नहीं कर रहा, न ही किसी एक को गलत या सही बता रहा हूँ।
यह लेख किसी विचारधारा अथवा मान्यता पर आधारित नहीं बल्कि तथ्यों और वैज्ञानिक शोधों पर आधारित है। मैं आपसे ये भी नहीं पूछना चाहता कि आपकी क्या प्रवृत्ति है? और न ही ये जानना चाहता हूँ कि यदि आपके सामने चुनाव की सुविधा होती तो आप मोनो या पॉली में से किसे चुनना पसंद करते! क्योंकि मुझे पता है कि सामाजिक रूढ़ियों के परिप्रेक्ष्य मे इन प्रश्नों का ईमानदारी से उत्तर देना यदि असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल तो है ही।
वैज्ञानिक शोधों की बात छोड़िए, परन्तु आपको भी यदि ये बातें अपने अनुभव (भावनाओं) के करीब लगी हों तो मुझे बताइएगा जरूर। यदि आप इन बातों से असहमत हों और इन्हें सिरे से नकारते हों तो भी मुझे कमेन्ट में बताइएगा।
इस पोस्ट का ये भद्दा सा अशालीन, मस्तराम टाइप टाइटल रखने के कुछ निम्न कारण हैं।
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए ध्यानाकर्षण करना।
ट्रोल करने के लिए प्रेरित करना ताकि बात जादा लोगों तक पहुंचे।
शुद्ध हिन्दी के शब्द खोजने, समझाने में मुश्किल होना। यदि इसी को में अंग्रेजी में लिखूँ तो इतना भद्दा नहीं लगेगा।
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