हमारे स्कूल के बच्चों की छमाही परीक्षाएँ शुरू हो गई हैं। वे पढ़ाई में बहुत व्यस्त हैं, उत्साहित हैं कि परीक्षा में किसी तरह उनके सारे सवाल सही हों और इंतज़ार कर रहे हैं कि कब अगले दो सप्ताह बीतेंगे और परीक्षाएँ समाप्त होंगी। एक दिन अगली परीक्षा के लिए रमोना आश्रम में ही रहने वाले एक बच्चे, प्रांशु को पढ़ा रही थी कि एक पुस्तक पलटते हुए उसकी नज़र इस सवाल पर पड़ी: 'घर में आप सबसे ज़्यादा किससे डरते हैं?' उसे विश्वास नहीं हुआ कि ऐसा प्रश्न भी किसी पाठ्य पुस्तक में हो सकता है!
‘नैतिक शिक्षा’ विषय का यह प्रश्न था। अधिकतर हमें यह विषय बच्चों के लिए काफी उपयोगी और महत्वपूर्ण लगता है। यह विषय उन्हें समझ प्रदान करता है कि एक-दूसरे के साथ कैसा सुलूक किया जाना चाहिए और अपने पर्यावरण और खुद अपने आप के प्रति आपका रवैया कैसा होना चाहिए। पाठ हैं, जिनमें नम्रता सिखाई जाती है और दूसरों का आदर करने की शिक्षा दी जाती है। कुछ पाठों में काम की महत्ता दर्शाई जाती है और यह भी कि कैसे कक्षा में अपने विवादों को मिलजुलकर सुलझाना चाहिए। इस विषय की एक ही समस्या है कि पाठ्य पुस्तक और शिक्षक भी अनिवार्य रूप से पाठों पर बहुत सी मनगढ़ंत बातें भी सिखाने लगते हैं और उन बातों से मैं हमेशा सहमत हो जाऊँ यह मुमकिन नहीं हो पाता।
प्रस्तुत प्रकरण में उस पुस्तक का एक पाठ बच्चों को यह बताता है कि घर का हर सदस्य महत्वपूर्ण है। दादा-दादी इसलिए कि वे आपको अपने संस्मरण सुनाते हैं, माता-पिता इसलिए कि दोनों बाहर जाकर काम करते हैं और पैसे कमाते हैं और बच्चे भी, इसलिए कि वे भी घर के कामों में मदद कर सकते हैं और बड़े-बूढ़ों की सहायता कर सकते हैं। यहाँ तक ठीक है। लेकिन उसके बाद प्रश्नावली में इस तरह के प्रश्न हैं, जिनके उत्तर बच्चों को अपनी परिस्थितियों और अनुभव के आधार पर लिखने हैं: आपके परिवार में कितने सदस्य हैं?, आपके घर में होमवर्क कौन करता है? इत्यादि।
और उसके बाद यह प्रश्न: 'घर में आप सबसे ज़्यादा किससे डरते हैं?'
भारत के घरों की स्थिति के बारे में जो बात मैं हमेशा से लिखता रहा हूँ, यह पाठ और यह प्रश्न उसे पूरी तरह सही ठहराता है: अर्थात, भारतीय घरों में हिंसा होती है और डर भी व्याप्त होता है! अभिभावक सोचते हैं कि उनके बच्चे तभी उनकी बात मानते हैं जब उनके मन में डर होता है। अगर उन्हें शिष्टाचार और सदाचार सिखाना है तो उन्हें डराकर रखा जाना ज़रूरी है। अगर वे नहीं डरते तो उनकी पिटाई भी होती है। और अंत में…उपरोक्त प्रश्न का आदर्श उत्तर क्या होना चाहिए? स्वाभाविक ही: पिता!
माँएँ, चाचियाँ और दादा-दादियाँ सारा दिन घर के बच्चों को इसी तरह धमकाती रहती हैं: 'आने दो तुम्हारे पिताजी को!' या, 'तुमने कहना नहीं माना तो पिताजी से शिकायत कर दूँगी!' स्वाभाविक ही इन धमकियों में शारीरिक सज़ा का पूरा इंतज़ाम होता है!
आखिर कब भारतीय पिता अपने बच्चों के साथ एक स्वस्थ संबंध विकसित कर पाएँगे? वह दिन भर घर में नहीं रहता, उसे पैसे कमाने बाहर निकलना ही पड़ता है और जब वह घर आता है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह दिन भर तजवीज की गई सज़ाओं को एक जल्लाद की तरह अंजाम देगा! आप बच्चों के मन में क्या भरना चाहते हैं?
एक पिता के रूप में मुझे यह बड़ा भयानक लगता है और मेरे परिवार में कोई ऐसी बात मेरी बेटी से पूछने की कल्पना भी नहीं कर सकता। हमारे यहाँ शिक्षा में डर के लिए कोई जगह नहीं है-लेकिन ज़्यादातर भारतीय परिवारों में यही स्थिति पाई जाती है और इसलिए स्कूलों में भी, किताबों में भी!
लेकिन हमारे स्कूल में हमने यह सुनिश्चित कर लिया है कि पाठ्य पुस्तकों से इस प्रश्न को हटा दिया जाए और यह भी कि शिक्षक भी जानें कि हमने ऐसा क्यों किया है: क्योंकि बच्चों को डरना नहीं बच्चों को उनके घर तथा स्कूल में सबसे सुरक्षित वातावरण प्राप्त होना चाहिए और उनके अभिभावक और शिक्षक उनसे प्रेम करते हैं और उन्हें खुश देखना चाहते हैं।