पिछले हफ्ते मैंने समझाया था कि बहुत से पश्चिमी लोग सिद्धि के लिए भारत आते हैं और उन्हें ढूंढते रहते हैं, जिनके पास सिद्धि है और जो उन्हें भी अपने जीवन में सिद्धि प्राप्त करवा सकते हैं। क्योंकि ऐसे लोगों की बड़ी मांग है, बहुत से लोग ऐसी सेवाओं की पेशकश करते हैं और इस तरह गुरुओं की संख्या में रोजाना वृद्धि होती जाती है। सभी लोग तुरंत ही अपने जादुई छल-कपट द्वारा झूठी सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं करते। अधिकतर गुरु साधारण प्रचारकों के रूप में अपने व्यवसाय की शुरुआत करते हैं और विशेष रूप से वृन्दावन में ऐसे लोग बड़ी संख्या में मिल जाते हैं।
पहले हमारे यहाँ एक व्यक्ति हमारी वेबसाइट पर काम करता था। यह उस समय से पहले की बात है, जब हमने खुद ही वेबसाइट पर अपलोडिंग करना, विषयवस्तु को अद्यतन रखना और विषयवस्तु को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत करना शुरू कर दिया था। इन्हीं सब कामों के लिए उसे रखा गया था मगर कुछ समय बाद हमने देखा कि वह हमारा काम कम करता है और डाउनलोड करके फ़िल्में ज्यादा देखता है और इसलिए अपनी वेबसाइट में हमारे द्वारा चाहे गए परिवर्तन काफी देर से हो पा रहे हैं। तब हमने उसे बाहर का रास्ता दिखाया और सारा काम खुद करना शुरू कर दिया और अब हमें कोई परेशानी नहीं है।
कुछ दिन पहले हमें पता चला कि अब हमारा वह भूतपूर्व कर्मचारी किसी दूसरे की वेबसाइट सुधारने का काम नहीं करता बल्कि उसने अपनी खुद की वेबसाइट बना ली है, सोशल नेटवर्क पर अपनी प्रोफाइल डाल दी है और अपना खुद का धंधा शुरू कर दिया है: यानी वह धर्म-प्रचारक बन बैठा है।
अपने मनपसंद सूट के स्थान पर सम्पूर्ण धार्मिक वस्त्र धारण किए, लम्बे बालों और चेहरे पर आध्यात्मिक गुरु वाला मेकअप चढ़ाए उसकी तस्वीरें हमने ऑनलाइन देखीं हैं। हमारे लिए उसकी यह साधुओं वाली वेशभूषा और उसका विज्ञापन बड़ा मज़ेदार था, जिसमें, स्वाभाविक ही, उसने अपनी वंशावली, अपने गुरु और परंपरा, हिन्दू कर्मकांडों और धर्मग्रंथों के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति, और कृष्ण-सेवा के लिए अपने समर्पण आदि की सम्पूर्ण जानकारी दी गई थी।
एक बार वह फिर से हमसे मिलने आश्रम आया और तब मैंने उससे बात की थी। मैंने उससे कहा कि मैंने उसके नए धंधे के बारे में सुना है और पूछा कि उसने यह सब कैसे और क्यों शुरू किया। "जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता है!" उसका दोटूक जवाब था।
तो आप देख सकते हैं, इस शहर में रोज़ दर्जनों धर्म-प्रचारक पैदा हो सकते हैं। जो उन्होंने सीखा है, जो वे जानते हैं उसी के आधार पर वे कोई रोज़गार प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। अगर उनके पास अच्छी योग्यता है तो वे सफल होते हैं। अगर नहीं होते तो वे धर्म-प्रचार के धंधे में लग जाते हैं। क्यों? क्योंकि वृन्दावन हमेशा धार्मिक तीर्थयात्रियों से भरा रहता है। वे भारत भर से और सारी दुनिया से यहाँ तीर्थयात्रा करने आते हैं और वृन्दावन में यमुना नदी के तट पर पूजा करने के लिए रुकते हैं, बांके बिहारी, मदनमोहन के प्राचीन मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं और कुछ नहीं तो, इस्कोन टेम्पल जाकर घूमते- फिरते हैं। और कुछ लोग, कुछ अतिरिक्त पैसा खर्च करके किसी पुजारी या धर्म-प्रचारक या कथावाचक को साथ रख लेते हैं, जो उन्हें धार्मिक कथाएँ सुनाता रहता है, उनके कर्मकांड और पूजाएँ संपन्न करा देता है और शहर के सभी धार्मिक और दर्शनीय स्थानों की सैर करा देता है।
जब आप एक तीर्थयात्री के रूप में वृन्दावन आते हैं तो इसका अर्थ है कि आप अपने अच्छे कर्मों के कारण यहाँ आए हैं। यहाँ आकर पूजा-अर्चना और दूसरे कर्मकांड करना, धर्मप्रचारकों और कथावाचकों से ईश्वर-भक्ति की कहानियां और भजन-कीर्तन और मंत्रोच्चार सुनना अच्छे कर्मों का हिस्सा हैं और उन अच्छे कर्मों में वृद्धि करते हैं। जो व्यक्ति यहीं पला-बढ़ा है, सुनाने योग्य अधिकतर मुख्य कहानियां सुन चुका होता है और प्रवचन आदि के बारे में थोड़ी-बहुत अतिरिक्त जानकारियाँ आसानी से सीखी जा सकती हैं। इसलिए हर व्यक्ति धर्मप्रचारक बन सकता है और युवक, जो कोई धंधा करना चाहते हैं, अक्सर यह धंधा शुरू कर देते हैं।
यह रोज़गार चुनने के लिए मैं किसी को दोष नहीं देना चाहता क्योंकि यह उनके जीविकोपार्जन का तरीका है। वे काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं और इसकी प्रशंसा ही करनी चाहिए। वे इस रोज़गार में कैसे आते हैं यह बताते हुए मैं कुछ लोगों के साधू-संत होने के दावे में से अलौकिकता या गूढ़ता जैसी बातों को अलग निकाल बाहर करना चाहता हूँ। दूसरे सभी धंधों की तरह यह भी एक धंधा है। कुछ लोग थोड़ा-बहुत सीख लेते हैं, उसकी मांग है और वे बाज़ार में अपने ज्ञान को बेचने का प्रस्ताव रखते हैं। वे संत-महात्मा नहीं हैं और वे आपसे ज्यादा पहुंचे हुए नहीं हैं। उन्हें धर्मप्रचारक कहने से बेहतर होगा उन्हें मनोरंजन करने वाला कहा जाए। धार्मिक मेकअप और पहनावा किसी व्यक्ति को संत-महात्मा नहीं बना देता। हो सकता है कुछ लोग पहले किसी कार्यालय में साधारण कर्मचारी रहे हों।