आश्रम में हमारे घर से गेट तक सुंदर रास्ता बना हुआ है और हर रोज़ हम लोग थोड़ी देर इस रास्ते पर टहलते हैं। अपरा को गोद में लिए हम वहाँ तक आकर कभी-कभी थोड़ी देर के लिए गेट पर ही रुक जाते हैं और बाहर का नज़ारा देखते हैं। दौड़ती हुई कारें, साइकिलें और मोटर साइकिलें देखने में अपरा को बड़ा लुत्फ आता है। इसके अलावा सड़क पर घर लौटते हुए कर्मचारियों या कस्बे के परिक्रमा-मार्ग पर परिक्रमा करते तीर्थयात्रियों की चहल-पहल भी होती है। तीर्थयात्री और कई स्थानीय लोग भी नंगे पाँव और अक्सर कोई मंत्र-पाठ करते हुए प्रतिदिन यह परिक्रमा करते हैं। कुछ अधिक श्रद्धालु जन अपने आपको इससे ज़्यादा कष्ट देते हैं: वे लेट जाते हैं और खड़े होकर तीन कदम चलते हैं और फिर लेट जाते हैं। यही क्रम दोहराते हुए वे लगभग दस किलोमीटर लंबी यह परिक्रमा पूरी करते हैं, इसे डंडौती परिक्रमा कहा जाता है।
कुछ दिन पहले हम लोग गेट पर खड़े यातायात का अवलोकन कर रहे थे कि हमने देखा कि एक तीर्थयात्री सड़क पर लेट गया और फिर खड़ा होकर नृत्य करते हुए कुछ कदम आगे बढ़ा और फिर लेट गया। स्वाभाविक ही वह अपने समर्पण में बेपनाह खुश दिखाई दे रहा था। रमोना मेरी तरफ मुड़ी और कहा: "यह सब करते-करते लोग पागल हो जाते होंगे, है न?" पल भर बाद मैंने जवाब दिया: "नहीं, यह सब करने के लिए पहले से आपका पागल होना ज़रूरी है!"
इससे पहले कि हिन्दू कट्टरपंथी इस प्रथा के पक्ष में अपनी बकबक शुरू करें और मेरे मित्र मुझे पाखंडी समझते हुए आरोप लगाएँ कि "लेकिन, तुम खुद यह सब किया करते थे!", मैं यह स्वीकार कर लेना चाहता हूँ कि जी हाँ, मैंने भी इसी तरह परिक्रमा की है और यह भी कि मेरी पत्नी भी यह जानती है।
मैं जानता हूँ कि उस वक़्त मेरे मन की क्या दशा थी, गुफा में प्रवेश से पहले। अगर वह व्यक्ति, जो कि उस वक़्त का मैं खुद था, आज मिल जाए तो मैं उसे निश्चित ही पागल कहूँगा।
धार्मिक विश्वास और आस्तिकता लोगों के दिमाग की जो गत बनाते हैं, उसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। इन बातों पर उनकी इतनी अधिक श्रद्धा, इतना दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो वे कर रहे हैं वह उनके लिए ही नहीं, विश्व भर के लिए भी अच्छा और शुभ है, कि वे उनके बारे में तर्कपूर्ण ढंग से सोचना ही बंद कर देते हैं। आपका दो या तीन दिन तक सड़क पर लेटना, फिर उठना और तीन कदम चलते हुए थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ना आपके ईश्वर का और आपका क्या भला कर सकता है, समझ से बाहर है। वे इस बात को अपनी भक्ति कहते हैं लेकिन मैं इसे उनके दिमाग के साथ धर्म का छल कहता हूँ। जब समर्पण इस सीमा तक बढ़ जाता है तब वह आपको अंधा बना देता है। आप दर्द महसूस नहीं करते, सोच-समझ नहीं पाते और देखते-देखते पागलपन की हद पार कर जाते हैं।
मैं मानता हूँ कि यह थोड़ा पागलपन तो है ही, मगर धर्म इससे भी ज़्यादा पागलपन करने के लिए लोगों को मजबूर कर देता है। भावना वही होती है, धर्म का छल उसी तरह काम कर रहा होता है, जब लोग सोचते हैं कि अपनी आखिरी दमड़ी धर्म पर खर्च करना एक अच्छी बात होगी, पता नहीं कब विश्व का अंत हो जाए! या दूसरे सहविश्वासु लोगों के साथ जानलेवा जहर खा लिया जाए। धर्म की यही धोखाधड़ी तब भी काम कर रही होती है जब एक व्यक्ति अपनी कमर पर बम लगाकर खुद को एक भीड़ भरे स्थान पर उड़ा देता है, जिसमें सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो जाती है। या प्लेन हाईजैक करके बहु-मंज़िला इमारत पर दे मारता है और हजारों निर्दोष लोगों की मौत का और उनके परिवार के लिए भयंकर दुख का कारण बनता है।
यह पागलपन है। यह धर्म है। कुछ नतीजे कम हानिकारक होते हैं और कुछ ज़्यादा। आप बर्दाश्त भी कर लें अगर वह दूसरों को और खुद को भी किसी तरह का नुकसान न पहुंचाए। उसे आप मूर्ख कह सकते हैं। लेकिन अंततः धर्म ही है, जिसने उसके दिमाग को छल-कपट से यह भक्तिपूर्ण कार्य करने के लिए मजबूर किया है।