पिछले सप्ताह भारतीय अभिभावकों को लिखे एक पत्र में मैंने बच्चों के साथ मार-पीट करने वाले अभिभावकों के बारे में लिखना शुरू किया था। इस पर कई प्रतिक्रियाएँ आई हैं और मुझे लगता है कि मेरे ब्लॉग ने लोगों के दिलों को छुआ है और वे समझते हैं कि यह वास्तव में सही तरीका नहीं है। पश्चिमी देशों से भी कुछ प्रतिक्रियाएँ मिली हैं, जिनमें बताया गया है कि यह ठीक है कि बच्चों के प्रति हिंसा उनके देशों में सामान्य रूप से मौजूद नहीं है फिर भी इसे किसी नियम की तरह नहीं देखा जा सकता और कुछ लोग वहाँ भी ऐसे हैं, जो पढ़ाई-लिखाई के मामले में अक्सर हिंसा का प्रयोग करते हैं। आज मैं दो भिन्न मगर सामान्य रूप से प्रयुक्त हिंसाओं को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ- सज़ा देने वाले जिन्हें अलग-अलग ढंग से देखते-समझते है:
1) योजनाबद्ध और सप्रयोजन दी जाने वाली हिंसक सज़ा
यह एक ऐसी हिंसा है, जिसे स्कूलों में भी शारीरिक सज़ा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। सज़ा के इस तरीके में बच्चों की पिटाई करने के लिए शिक्षक या अभिभावक अक्सर एक छड़ी, बेल्ट या ऐसी ही किसी चीज़ का उपयोग करते हैं, जिन्हें आम तौर पर नितंबों पर मारा जाता है या फिर ज़्यादा क्रूर तरीके से उँगलियों पर या शरीर के किसी और हिस्से पर भी। ऐसी सज़ा देने का एक प्रयोजन होता है: अभिभावक अपने बच्चे को सुधारना चाहते हैं। बच्चे को एक विशेष जगह पर आने के लिए कहा जाता है, जहां यह सज़ा दी जानी है और बच्चे को अक्सर पहले से बता दिया जाता है, जिसके कारण बच्चे के मन में पहले से ही डर समाया होता है।
इसके पीछे यह विश्वास होता है कि बच्चा यह गुस्ताखी दोबारा नहीं करेगा क्योंकि वह डरा हुआ होगा कि ऐसा करने पर उसे फिर यही सज़ा मिल सकती है। यह सज़ा न तो कारगर सिद्ध होती है बल्कि वह बच्चे के जेहन को (भावनाओं को) हमेशा-हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त कर देती है और विशेष रूप से उसके साथ आपके संबंध को। क्या आप वाकई चाहते हैं कि आपका बच्चा आपसे डरे? कि आपकी बेटी अपने भयावह दुःस्वप्न में आपको छड़ी लिए हुए एक राक्षस के रूप में देखे?
2) आदतन या गुस्से के क्षणिक आवेश में पिटाई करना
बहुत से भारतीय ऊपर दिये गए सज़ा के तरीके को हिंसक मान भी लेंगे मगर उनमें से ज़्यादातर लोग इस दूसरे तरीके को सज़ा ही नहीं मानेंगे। यह बच्चे के नितंब पर या सिर पर एक तमाचा होता है, जिसे तब इस्तेमाल किया जाता है, जब बच्चा, मसलन, बार-बार गिलास का पानी बिखेरने की गलती करता है। आपस में लड़ते-झगड़ते या आपस में गुत्थमगुत्था दो या अधिक बच्चों को उनके कान उमेठते हुए अलग करना भी सज़ा की इसी श्रेणी में आता है। बच्चा जब ज़िद करे, आपकी बात न माने या दीवारों पर परमानेंट मार्कर से चित्रकारी करने लगे, तब गुस्से के आवेश में उसके गाल पर जड़ा तमाचा भी इसी श्रेणी की सज़ा है।
पल भर के लिए आप इतना क्रोधित हो जाते हैं कि अपने आवेश पर नियंत्रण नहीं रख पाते या बच्चे के अड़ियलपन या ज़िद के प्रति निराशा में इतना उत्तेजित हो जाते हैं कि बच्चे पर उठे हाथ पर आपका काबू नहीं रह जाता। आपमें क्षण भर का संयम नहीं रह जाता कि अपनी भावनाओं और गुस्से के विषय में सोच भी सकें लेकिन बच्चों के लालन-पालन में बड़े संयम की आवश्यकता होती है! आपने यह भी नहीं सीखा है कि बच्चे को छूने से पहले अपने गुस्से को ठंडा हो जाने दें। ये उदाहरण हैं, जहां अभिभावक, बाद में विचार करने पर, पछताते हैं कि बच्चे की पिटाई करना ज़रूरी नहीं था।
लेकिन इससे बड़ी समस्या यह है कि अब आप अपनी इन गलतियों का नोटिस भी नहीं ले पाते! यह व्यवहार आपकी आदत बन चुका होता है। ऐसी आदत, जिसके बारे में आप कहते हैं ‘मैं अपने बच्चों को कभी नहीं मारता’, जबकि आप हरदम यह करते रहते हैं।
यह बेहिचक कहा जा सकता है कि दोनों तरह की हिंसाएँ पूरी तरह अनुचित हैं।
एक और हिंसा है: शाब्दिक हिंसा! इसे भी कम नहीं आंकना चाहिये और इसीलिए इस पर एक पूरा ब्लॉग मैं कल प्रस्तुत करूंगा।