अपरा खेल रही थी और मैं और रमोना हमेशा की तरह बच्चों के लालन-पालन संबंधी विषयों पर चर्चा करने लगे कि कैसे आज जो आप बच्चों के साथ कर रहे हैं, उसका भविष्य में उन पर कितना गहरा असर पड़ता है। इस बार हमारी चर्चा इस ओर मुड़ गई कि बच्चों को यह निर्देश देने में कि वे क्या करें या न करें और उन्हें उनकी मर्ज़ी से कुछ भी करने की स्वतंत्रता देने के बीच क्या अंतर है।
मेरा विश्वास है कि दोनों के मध्य तालमेल बनाए रखने की ज़रूरत है लेकिन हम दोनों के दो भिन्न देशों और उनकी संस्कृतियों के बीच तुलना करते हुए हमने पाया कि दोनों ही परिस्थितियों में कई लोग अति कर देते हैं।
अगर आप भारतीय परिवारों में जाएँ तो कई बार आपको पता चलेगा कि घर में वयस्क सदस्य मौजूद हैं लेकिन वे बच्चों के साथ कोई चर्चा नहीं करते, उनके साथ विशेष मेलजोल नहीं रखते। माँ घर के कामकाज निपटा रही होती है, दूसरे सदस्य चर्चा कर रहे होते हैं और बच्चे अपनी मनमर्ज़ी से खेलकूद में लगे होते हैं या इधर-उधर मटरगश्ती कर रहे होते हैं। वे अपने खेल खुद चुनते हैं, उनके खिलौने उनके अपने हैं और कुल मिलाकर बिना किसी निर्देश के वे अपना पूरा समय बिताते हैं- वही तयशुदा खेल या अपवादस्वरूप कोई वयस्क उनके साथ खेलने वाला।
कभी-कभी, और खासकर अनपढ़ परिवारों में, इसके बड़े खतरनाक परिणाम निकलकर आते हैं! बच्चे अपने परिवेश की जाँच-परख करते हैं- परिवेश, जो आवश्यक नहीं कि बच्चों के लिए पूर्ण सुरक्षित हो- और गंभीर शारीरिक चोटें खा बैठते हैं। अगर कोई वयस्क उस समय उनके साथ होता या दूर से ही सही, सिर्फ उनकी ओर ध्यान दे रहा होता तो दुर्घटना टल सकती थी। संयुक्त परिवारों में भी, जहाँ काफी वयस्क और बुज़ुर्ग मौजूद होते हैं और जिनमें से कोई एक बच्चों का ध्यान रख सकता है, ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं।
इसके विपरीत, पश्चिम में मैंने देखा है कि बच्चे हर वक़्त किसी न किसी की नज़र में होते हैं और अधिकतर किसी न किसी वयस्क के साथ मिलकर सक्रिय रूप से कुछ न कुछ कर रहे होते हैं। इससे किसी संभावित दुर्घटना की रोकथाम हो जाती है और वयस्क को भी बच्चे के अंदर छिपी प्रतिभा को जानने और उसे आगे विकसित करने का मौका मिल जाता है।
बहुत छोटी उम्र से ही वहाँ खेलने का बंधा-बंधाया समय होता है। वयस्क उनके खिलौने तैयार करके उन्हें देते हैं कि उन्हीं से खेलें और वे उनसे खेलते हैं और अभिभावक लगातार उन्हें बताते रहते हैं कि कैसे खेलना है या कैसे उनका इस्तेमाल करना है। फिर बच्चे किंडरगार्टेन और स्कूल में पढ़ने जाने लगते हैं, जहाँ सब कुछ बंधा-बंधाया ही होता है। स्कूल से लौटने के पश्चात वाद्ययंत्र सीखने की कक्षाएँ या खेल-कूद का नियत समय होता है और निश्चित ही होमवर्क तो करना ही करना होता है। हर बात के स्पष्ट निर्देश होते हैं कि कब, कैसे और किस क्रम में उन्हें किया जाना है। यहाँ तक कि दोस्तों के साथ खेलने के नियत दिनों में भी मैंने देखा है कि अभिभावक बच्चों को क्या खेलना चाहिए, यह बताना आवश्यक समझते हैं।
बहुत ज़्यादा मार्गदर्शन के साथ मैं जो समस्या देखता हूँ वह यह है कि उससे बच्चे दूसरों के कहे अनुसार काम करने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे यह भी नहीं जान पाते कि वास्तव में वे खुद क्या करना चाहते हैं! खास कर परंपरागत शिक्षा विधियों और सख्त लालन-पालन के तरीकों के चलते उन्हें खुद कुछ करके देखने और खोज-बीन करते हुए आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा या प्रोत्साहन नहीं मिल पाता! वे गिरते नहीं हैं या गिर नहीं सकते और इसलिए जानते ही नहीं हैं कि गिरने पर चोट लगती है। उन्हें खुद निर्णय लेने का मौका ही नहीं मिल पाता। और फिर वे यह भी समझ नहीं पाते कि वास्तव में वे क्या करना चाहते हैं!
ऐसी हालत में हम बड़ी तादात में ऐसे युवाओं को देखते हैं, जो वास्तव में यह भी नहीं जानते कि अपने समय का क्या सदुपयोग किया जाए। वे स्कूल से पढ़कर निकले हुए युवा बच्चे होते हैं, जो अब भी मार्गदर्शन के लिए अभिभावकों का मुँह जोहते हैं कि वे बताएँ कि नौकरी के लिए कहाँ आवेदन किया जाना ठीक होगा या किसी शिक्षक का, जो यह बताए कि अपने जीवन का आगे क्या किया जाना चाहिए। उन्हें बताई गई बातों का ही वे अनुसरण करते हैं क्योंकि वे उसी में आसानी महसूस करते हैं।
मुझे लगता है कि हमें बच्चों को स्वतन्त्रता पूर्वक अपनी मर्ज़ी से विकसित होने की आज़ादी देनी चाहिए। उनका मार्गदर्शन बहुत सहजता के साथ किया जाना चाहिए कि वे सीखें अवश्य लेकिन उनके लिए इतना मौका भी छोड़ना चाहिए कि वे समझ सकें कि वे क्या सीखना चाहते हैं! हमें उनकी सुरक्षा का खयाल अवश्य रखना चाहिए मगर इस तरह कि बिना किसी व्यवधान के वे खुद अपने अनुभव प्राप्त कर सकें।
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