क्यों भारतीय युवा अपने माता-पिता से झूठ बोलते हुए ज़रा सा भी नहीं झिझकते? 18 जनवरी 2016
पिछले सप्ताह मैंने भारतीय महानगरों के बारे में लिखते हुए बताया था कि वहाँ भी अभिभावक आज भी परंपराओं से चिपके हुए नज़र आते हैं, जिससे कहीं वे आधुनिक जीवन द्वारा प्रस्तुत नए तौर-तरीकों में कहीं खो न जाएँ। जबकि वे कई तरह से आधुनिक होने की कोशिश कर रहे होते हैं, विशेष रूप से लड़कियों के लालन-पालन में वे वापस परंपरा की ओर लौट आते हैं-और यह बात उनके लिए बहुत सी समस्याएँ खड़ी कर देती है! मैं बताता हूँ कि कैसे।
पिछले कुछ महीनों में मैं बहुत से युवा भारतीयों से मिला हूँ, जिनमें से कई लोग दिल्ली शहर के रहने वाले थे। हमने कई विषयों पर बातें कीं, जिनमें से दिल्ली की लड़कियों और युवा महिलाओं की जीवन पद्धति एक मुख्य विषय था। वे वहाँ पढ़ने आती हैं और विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करके वहीं कहीं नौकरी करने लगती हैं। वे मेट्रो और ऑटो रिक्शा में दिल्ली के हर इलाके में घूमती-फिरती हैं, बड़े शहर द्वारा प्रस्तुत अवसरों को वे हाथोहाथ लेती हैं और अपने जीवन का भरपूर उपभोग करती हैं। लेकिन उनके सामने एक समस्या अवश्य पेश आती है:वे अपने अभिभावकों से हर विषय पर खुलकर बातें नहीं कर पातीं!
हमारे यहाँ आने वाली बहुत सी युवतियों ने बताया कि वे लड़कों के साथ अपनी मर्ज़ी से कहीं भी घूमने-फिरने जाती रही हैं। ज़्यादातर युवतियाँ अपने पुरुष और महिला मित्रों के साथ समय बिताकर समान रूप से खुश होती हैं और उनमें से कुछ लड़कियों के पहले भी बॉयफ्रेंड रहे हैं। वे उनके साथ देर रात को चलने वाली फ़िल्में देखने जाती हैं और उनके साथ उनके निवास पर रात भी गुज़ार लेती हैं।
और निश्चित ही ये बातें वे अपने अभिभावकों को नहीं बतातीं! मैं ‘निश्चित ही’ कह रहा हूँ क्योंकि आज भी अविवाहित भारतीय युवक-युवतियाँ एक साथ रात गुज़ार लें, यह सोचा भी नहीं जा सकता। और वे अच्छी तरह जानती हैं कि उनके अभिभावक इस बात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और बहुत सी दूसरी मुसीबतें खड़ी करेंगे, जैसे बुरा-भला कहने से लेकर उनके बाहर निकलने पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाना शुरू कर देंगे।
इसलिए इन लड़कियों ने मुझसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे उनसे साफ झूठ बोल देती हैं। वे उनसे कहती हैं कि विश्वविद्यालय में कुछ ज़रूरी कामों में व्यस्त हैं या अपनी किसी पक्की दोस्त के यहाँ रात गुज़ारेंगी, जिसे उनके माता-पिता भी अच्छी तरह से जानते हैं। वे बताती हैं कि सचाई सबको दुखी कर सकती थी। एक झूठ उन्हें बहुत से प्रश्नों से दूर रखता है और बहुत सी असुविधाजनक स्थितियों से बचा ले जाता है और वैसे भी, वे जानती हैं कि वे उन्हें कभी संतुष्ट नहीं कर सकेंगी। तो फिर व्यर्थ वाद-विवाद की स्थिति क्यों पैदा की जाए? उनके चेहरों पर मैंने स्पष्ट देखा कि इन झूठ बातों के लिए उन्हें कतई कोई अपराधबोध या पछतावा नहीं है।
इसे उचित नहीं कहा जा सकता। दोनों ओर से यह परिस्थिति ठीक नहीं है लेकिन अभिभावक के रूप में आपको सोचना चाहिए कि आपके बच्चों को आपसे झूठ कहने की ज़रूरत ही क्यों पड़े। मेरा मानना है कि इस झूठ के लिए अभिभावक ही दोषी हैं जो तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाकर बच्चों को झूठ बोलने के लिए मजबूर करते हैं। आधुनिक समय में पुरानी मान्यताओं से चिपके रहकर हम वास्तव में क्या कर रहे होते हैं? हम अभिभावकों और बच्चों के बीच खाई पैदा कर रहे होते हैं। आपके बच्चे, जो स्वयं वयस्क युवा हैं, जानते हैं कि उन्हें आप किन बातों की इजाज़त नहीं देंगे। वे यह भी जानते हैं कि वे क्या कर सकते हैं। वे फिल्में देखते हैं और अपने लिए वैसी ही स्वतंत्रता चाहते हैं जैसी उनमें दिखाई जाती है, विशेष रूप से उन शहरों में रहते हुए, जहाँ यह सहज संभव है!
और सबसे बड़ी बात, लड़कियाँ चाहती हैं कि वे भी वह सब कर सकें जो उनके भाई करते हैं। क्यों आप उन्हें आज़ादी के साथ रात को बाहर घूमने की इजाज़त दिए हुए हैं? क्यों आप उन्हें तीन-तीन बार नहीं टोकते जब वे रात दस बजे के बाद बाहर रहते हैं? उनकी कोई गर्लफ्रेंड हो तो आपको कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन अगर आपकी बेटी का कोई बॉयफ्रेंड है तो वह आपको क्यों नागवार गुज़रता है?
जब आप बच्चों पर पाबंदियाँ लगाते हैं, मना करते हैं, वर्जनाएँ थोपते हैं तो आप उन्हें झूठ बोलने के लिए प्रेरित कर रहे होते हैं। उनके साथ खुला व्यवहार रखें और हर विषय पर उनसे बात करें। उन्हें अधिक से अधिक आज़ादी दें और तब वे उन नियमों का पालन करेंगे, जिनके बारे में आप बहुत गंभीर हैं और जिनका पालन करना आप ज़रूरी मानते हैं। सबसे बढ़कर, तब वे अपनी सुरक्षा के प्रति अधिक सतर्क रहेंगे। क्योंकि वे आपके पास आकर अपनी समस्याओं की जानकारी आपको दे सकेंगे, आपकी मदद ले सकेंगे। अन्यथा आप लोगों के बीच सिर्फ झूठ का बोलबाला होगा!
भारत में महिलाओं के जीवनों में तब्दीली आ रही है लेकिन वहाँ नहीं, जहाँ कि सबसे अधिक ज़रूरत है – 14 जनवरी 2016
कल मैंने बताया था कि कैसे पुरानी परंपराएँ समाज के ताज़ा बुरे हालात का कारण हैं। जैसे, विवाह के बाद परिवार और दूसरे बहुत से लोगों का महिलाओं पर जल्द से जल्द बच्चे पैदा करने का दबाव। कुछ पाठक मेरी बात से सहमत थे लेकिन उन्होंने भी जोड़ा, ‘हालात बदल रहे हैं।’ मैं भी मानता हूँ, मगर एक हद तक ही!
सर्वप्रथम, उन जगहों पर गौर करें जहाँ वास्तव में परिवर्तन हो रहा है: महानगरों में निश्चय ही सबसे पहले परिवर्तन नज़र आता है। इन जगहों में महिलाएँ कोई न कोई काम करती हैं, वहाँ लड़कों की तरह लड़कियाँ भी पढ़ने स्कूल जाती हैं और वहाँ कामकाजी महिलाओं के लिए डे-केयर सेंटर्स उपलब्ध हैं, जहाँ वे काम पर जाते हुए बच्चों को छोड़ सकती हैं। इत्यादि, इत्यादि।
लेकिन मैं कुछ बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ: पहली यह कि वह भारत की आबादी का बहुत छोटा सा हिस्सा है। दूसरे, वहाँ भी इस मसले पर मानसिकता में उतना परिवर्तन नहीं हुआ है जितना हम सोचते हैं कि हुआ है!
हाँ, दिल्ली, मुम्बई और दूसरे बड़े शहरों में महिलाओं की हालत में परिवर्तन हुआ है। अभिभावक उन्हें काफी आज़ादी देते हैं और अब गाँव की लड़कियों की तुलना में वहाँ लड़कियाँ जीवन को पूर्णतः अलग तरीके से जानने-समझने के लिए स्वतंत्र हैं।
इस तथ्य के अलावा कि स्पष्ट ही वह देश की कुल जनसंख्या का एक छोटा सा हिस्सा है, वहाँ भी महिलाओं के लिए जीवन अन्यायपूर्ण ही बना हुआ है क्योंकि वहाँ भी अभिभावकों, रिश्तेदारों और सामान्य रूप से सारे समाज में ही परंपराओं को अब भी ऊँची प्राथमिकता प्राप्त है! जबकि लड़के स्वतंत्रता पूर्वक कहीं भी घूम-फिर सकते हैं, लड़कियों को समाज के सुरक्षा घेरे में बंद रहना होता है, जो उन्हें सुरक्षा तो प्रदान करता है मगर उन्हें एकाकी भी कर देता है। उन्हें किसी लड़के के साथ घूमने-फिरने की आज़ादी नहीं होती और अगर होती भी है तो अभिभावक इस पर गहरी नज़र रखते हैं कि वे किसके साथ मिल-जुल रही हैं। देर रात तक बाहर रहना वर्जित है, रात को अगर बाहर रुकना ही है तो सिर्फ अपनी सबसे पक्की सहेली के यहाँ भर सोने की आज़ादी मिल सकती है, वह भी तब, जब अभिभावक भी उस सहेली के माता-पिता को अच्छी तरह जानते हों कि वे सभ्य लोग हैं। इसके अलावा, हर समय उसे अपनी खबर देनी आवश्यक हैं कि वह कहाँ जा रही है।
यह स्वतंत्रता का मिथ्या दिखावा है। विज्ञापन है, पूरी फिल्म नहीं। ज़्यादातर प्रकरणों में अभी भी विवाह का समय आते-आते उसका अंत हो जाता है और तब लड़की को, पढ़ी-लिखी और नौकरी करने वाली लड़की को, पति और परिवार की इच्छाओं और अपेक्षाओं के सामने घुटने टेकने की सलाह दी जाती है। क्योंकि यही परंपरा है और यह परंपरा अभी टूटी नहीं है! ‘पति का आदर करो’ का अर्थ है, जैसा वह कहे, करो!
और इस दृष्टिकोण से देखें तो पता चलता है कि अपेक्षाएँ वही पुरानी हैं, आगे की प्रक्रिया भी वही है और दबाव, दुख और आँसू भी वही हैं। इसलिए नहीं, अभी भी बड़े शहर भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं, वे भी उन परंपरागत समस्याओं का अंत नहीं कर सके हैं-असलियत यह है कि इसके चलते कुछ दूसरी समस्याओं ने जन्म ले लिया है, जिन पर, संभव हुआ तो, मैं अगले हफ्ते चर्चा करूँगा।
क्या आप भी सोचते हैं कि ‘शादी से पहले सेक्स नहीं’ – 13 जनवरी 2016
पिछले दो दिनों से मैं उन दबावों के बारे में लिखता रहा हूँ, जिन्हें भारतीय समाज में, खास तौर पर महिलाओं को, विवाह के बाद बर्दाश्त करना पड़ता है: एक तरफ उनसे विवाह-सूत्र में बंधने से पहले कुँवारी होने की अपेक्षा की जाती है तो दूसरी तरफ अब उन्हें जल्द से जल्द गर्भवती होने का निर्देश दिया जाता है! भारतीय समाज में नैतिकता को लेकर अनेक प्रकार के प्रतिबंध होते हैं और मेरे विचार में इसमें तब्दीली आनी चाहिए, जिससे आधुनिक जीवन की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप खुशियों और संतोष के लिए उपलब्ध जगह का विस्तार किया जा सके!
सच बात यह है कि किस परिस्थिति में आपका व्यवहार कैसा होना चाहिए इत्यादि बहुत से नैतिक मूल्यों और विचारों की जड़ पुरानी और परंपरागत धारणाओं में पाई जाती है और उस पुराने समय में, संभव है, वे नैतिकताएँ उचित भी रही हों। पुराने जमाने में लोगों का अनुमानित जीवन काल आज के मुक़ाबले बहुत कम हुआ करता था। इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कि उनकी मौत से पहले तक बच्चे पर्याप्त बड़े हो जाएँ, उनके लिए कम उम्र में बच्चे पैदा करना आवश्यक था और इसलिए विवाह के तुरंत बाद से ही इस दिशा में प्रयास करना तर्कपूर्ण कहा जा सकता है। किन्तु आज भी वही पुरानी परंपरा भारतीय मानदंड बना हुआ है और जितना जल्दी संभव हो, बच्चे पैदा करने को उचित माना जाता है। इस तरह शादी के नौ माह बाद के समय को ही बच्चे पैदा करने का मुहूर्त मान लिया जाता है!
लेकिन विवाह से पहले नहीं! बिलकुल नहीं! अविवाहित महिला को गर्भवती नहीं होना चाहिए, वैसा होने पर आसमान टूट पड़ेगा! पुराने जमाने में वास्तव में यह उसकी बरबादी का बायस हो सकता था क्योंकि महिलाएँ ही घर की देखभाल करती थीं और सिर्फ पुरुष ही परिवार के लिए भोजन-पानी का इंतज़ाम किया करते थे। महिलाओं के लिए यह संभव नहीं था कि बाहर निकलकर पैसे कमाएँ और अपनी और अपने बच्चे की देखभाल कर सकें!
लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकी है। बाहरी माहौल बदल चुका है और तदनुसार विचारों में भी बदलाव आना चाहिए। आज के समय में हम तुलनात्मक रूप से लंबा जीवन जीते हैं- इतना कि सिर्फ बच्चे ही नहीं नाती-पोते भी बड़े होकर खुद अपनी देखभाल करने योग्य हो जाएँ! इसलिए, हम कुछ अधिक साल शादी का इंतज़ार कर सकते हैं और शादी के बाद कुछ और साल बच्चे पैदा करने का! जल्दबाज़ी में किसी अनजान लड़की या लड़के से शादी करने की अब आवश्यकता नहीं रह गई है। और इसीलिए माता-पिता द्वारा तय विवाह का कोई औचित्य नज़र नहीं आता-आपके पास अपनी पसंद के किसी व्यक्ति को खोजने का पर्याप्त समय होता है, जिसके साथ आप सारा जीवन गुज़ार सकें! और इसीलिए बच्चे पैदा करने में जल्दबाज़ी करने की भी आपको ज़रूरत नहीं है!
अंत में, आज महिलाओं को इस बात का अवसर प्राप्त होना चाहिए कि वे स्वयं पैसे कमाकर अपनी देखभाल कर सकें। और तब अगर वे शादी से पहले सेक्स संबंध बनाना चाहती हैं या गर्भवती हो जाती हैं और बच्चे को जन्म देकर उसका लालन-पालन करना चाहती हैं तो आसमान नहीं टूट पड़ने वाला है!
दुर्भाग्य से, भारत में हम अभी उस मंज़िल तक नहीं पहुँचे हैं, जैसा कि, अगर आप मेरे ब्लॉग नियमित रूप से पढ़ रहे हैं या यहाँ की वस्तुस्थिति से परिचित हैं, तो जानते होंगे। लेकिन हमें वहाँ तक पहुँचना चाहिए-और मुझे लगता है कि कुछ समय गुज़रने के बाद हम अवश्य पहुँचेंगे!
महिलाओं पर बच्चा पैदा करने के दबाव के भयंकर परिणाम – 12 जन 2016
कल मैंने नवविवाहित दंपतियों से भारतीय अभिभावकों, सास-ससुर और समाज की इस अपेक्षा के बारे में आपको बताया था कि वे जल्द से जल्द बच्चे पैदा करें अन्यथा वे समझने लगते हैं कि उनमें कोई न कोई कमी है! इसका उन पर अच्छा-खासा दबाव होता है, विशेष रूप से महिलाओं पर, कि वे हर बात बताएँ और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे हर बात बताएँगी। और बहुत सी महिलाएँ यही मानती हैं कि शादी के बाद उनकी अपेक्षा स्वाभाविक ही है और वे खुद भी चाहने लगती हैं कि यही हो। वे गर्भवती होना चाहती हैं-लेकिन यह सब मनुष्यों के हाथ में नहीं होता! समझ लीजिए, कभी-कभी ऐसा संभव नहीं हो पाता। और तब उनके लिए समाज का दबाव बर्दाश्त करना बहुत कठिन हो जाता है!
मैं इस परिस्थिति का सामना करती हुई बहुत सी महिलाओं से मिला हूँ, जहाँ वे गर्भवती नहीं हो पातीं या उनका गर्भ उनके शरीर में ठीक से विकास नहीं कर पाता। मैंने दुनिया भर की महिलाओं से उनके मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक समस्याओं पर बात की है। इसका तनाव उन सभी पर बड़ा भयानक होता है-लेकिन भारत में यह बाहरी दबाव सबसे असहनीय होता है!
स्वाभाविक ही, अगर आपने काफी समय से कोशिश की और दुर्भाग्य से कई गर्भपात हो गए या किसी कारण से आप गर्भवती नहीं हो पाईं तो यह भावनात्मक रूप से आपको तोड़ देता है। यह शारीरिक रूप से भी बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। यह आप पर मानसिक बोझ होता है। लेकिन पश्चिम में अक्सर यह बोझ आतंरिक होता है, महिलाओं द्वारा खुद अपने लिए महसूस किया जाता है। अपनी खुद की मर्ज़ी से वह माँ बनने का फैसला करती है और यह तथ्य कि वह माँ नहीं बन पा रही है और यह डर कि संभव है, वह कभी माँ नहीं बन पाएगी उस बोझ और तनाव का कारण होता है।
भारत में यह बोझ ज़्यादातर इस डर के कारण होता है कि आपकी यह असमर्थता दूसरों को निराश कर देगी, नाती या पोते की दूसरों की चाहत के कारण, आपसे उनकी अपेक्षा के कारण और उस अपेक्षा के दबाव के कारण-क्योंकि ऐसा ही चलन है कि बच्चे पैदा करना है और वैसा संभव नहीं हो पा रहा है। यह डर कि आपको अयोग्य और अधूरा माना जाएगा, कि आप महिला होने के मूलभूत कर्तव्य का निर्वाह नहीं कर पा रही हैं और यह भावनात्मक कष्ट कि आप दूसरों की अत्यंत सहज-स्वाभाविक इच्छा पूरी नहीं कर पा रही हैं। इसके अलावा यह एहसास कि खुद आपकी इच्छा और उससे उपजे आपके दुःख की कोई कीमत नहीं है। वैसे खुद अपने आपसे निराशा सिर्फ मामूली दुःख पैदा करता है और वह बाहरी प्रभावों के सम्मुख वास्तव में नगण्य ही होता है!
जब आप सामान्य रूप से बच्चे पैदा नहीं कर पातीं तो भारत में भी कुछ प्रावधान हैं जिनका उपयोग किया जा सकता है। पति-पत्नी, दोनों के फर्टिलिटी टेस्ट की सुविधा है, अंडोत्सर्ग का ठीक समय पता करने के यंत्र उपलब्ध हैं और कई दूसरे तरीके मौजूद हैं, जिनसे नैसर्गिक रूप से गर्भ धारण करना संभव किया जाता है और अंत में निश्चित ही, विट्रो फर्टिलाइजेशन के ज़रिए IVF का उपाय भी उपलब्ध है, जिसमें पत्नी के गर्भ का निषेचन पति के शुक्राणुओं के द्वारा प्रयोगशाला में किया जाता है। लेकिन इनमें से कुछ सुविधाएँ बहुत खर्चीली होती हैं और उनका लाभ लेने के लिए युवा दंपति को क़र्ज़ लेने की ज़रूरत पड़ती है। इसके अलावा ये तरीके न सिर्फ भावनात्मक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी बड़े तकलीफदेह होते हैं। सबसे बड़ी बात, इतना करने के बाद सफलता की संभावना हताश कर देने की हद तक कम होती है और इतनी परेशानियों के बाद अगर गर्भ धारण करना संभव नहीं हुआ तो महिलाएँ बुरी तरह टूट जाती हैं! शरीर से निकाले गए अंडे या गर्भ के साथ खुशी की सारी आशा, बाहर से प्रेम और आदर की अंतिम संभावना भी धूल में मिल जाती है और वे अपने आपको समाज के सामने फिर उसी रूप में खड़ा पाती हैं, जिस रूप में इस ताम-झाम की शुरुआत के समय खड़ी थीं-एक गर्भधारण करने में असमर्थ एक महिला के रूप में!
महिलाएँ अवसादग्रस्त हो जाती हैं। उनकी जीने की इच्छा समाप्त हो जाती है। इन कारणों से आए दिन बहुत सी महिलाएँ आत्महत्या तक कर लेती हैं! खास तौर पर परिवार द्वारा तय की गई शादियों में, जहाँ आप शादी करके एक तरह से वचनबद्ध होती हैं कि आप अपने नए परिवार को उनका वारिस प्रदान करेंगी और जहाँ प्रेम जैसी बात दृश्यपटल से पूरी तरह गायब होती है। यह लगभग ऐसा होता है जैसे दूल्हा ठगा गया हो और बाज़ार से टूटा-फूटा सामान ले आया हो, जो किसी काम का नहीं है और जिससे अपेक्षित नया निर्माण संभव नहीं है!
क्या आप विश्वास करेंगे कि इस मूर्खतापूर्ण अपेक्षा के चलते हम कई जानें गंवा बैठते हैं? निश्चित ही, अभिभावकों का अधिकार है कि वे नाती-पोतों की आशा करें। लेकिन उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे अपनी बहू पर इसके लिए बेजा दबाव डालें और सारे समाज को यह पता होना चाहिए: भविष्य में आने वाले बच्चे की मृग-मरीचिका की कीमत पर आप एक जीती जागती महिला को बीमार बनाए दे रहे हैं। आपके व्यवहार के चलते क्रमशः हर माहवारी के बाद भीतर ही भीतर आप उसकी जान ले रहे हैं! क्या आप यही चाहते हैं? मुझे नहीं लगता!
तो कृपा करके दंपतियों को आपस में प्यार करने दीजिए और प्यार के कारण विवाहबद्ध होने दीजिए। उन्हें निर्णय करने दीजिए कि कब उन्हें बच्चा चाहिए। उन्हें अपना जीवन जीने की आज़ादी दीजिए। जब उन्हें मदद की ज़रूरत हो, उनके साथ उनके पास खड़े रहिए-चाहे वह बच्चे की चड्डियाँ बदलनी हों या बच्चा पैदा न कर पाने के दुख में आँसू बहाने के लिए आपके कंधे की ज़रूरत हो!