कल का ब्लॉग पढ़ने के बाद किसी ने कहा कि मुझे उस महिला मेहमान की प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आखिर वह महिला थीं और स्पष्ट ही अपने पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले बेहतर काम अंजाम दे रही थीं। ऐसे पदों पर आसीन महिलाओं को अक्सर वह सराहना, मान्यता और सम्मान नहीं मिल पाते, जिसकी वे हकदार होती हैं। यह जानकारी मेरे लिए रोचक तो थी मगर साथ ही कष्टकर भी थी और इसलिए मैं चाहता हूँ कि इस विषय पर कुछ और विचार किया जाए।
सर्वप्रथम यह कि प्रबंधन के मामले में पुरुषों का दबदबा अभी भी कायम है। प्रबंधन में महिलाएं मौजूद अवश्य हैं और बहुत से देशों में ऊंचे पदों पर भी मौजूद हैं मगर उनका प्रतिशत यह ज़ाहिर करता है कि पुरुष ही अधिकतर प्रबंधन के ऊंचे ओहदों तक पहुँचते हैं। आइए इसके कारणों पर, जैसे बाद में महिलाओं की गर्भावस्था और मातृत्व का समय आदि पर चर्चा करें और इसके परिणामों पर ध्यान केन्द्रित करें।
तो माना कि दस लोगों के एक समूह में सिर्फ एक महिला है। परिणामों के आंकड़े बताते हैं कि महिला का प्रदर्शन सभी पुरुषों से बेहतर है जबकि पुरुषो के मन में अभी भी यही विचार बना हुआ है: 'आखिर एक महिला मेरा काम कैसे कर सकती है?' जी हाँ! दुर्भाग्य से यही विचार, महिलाओं को कमतर समझने का यह रवैया अभी भी जड़ जमाए हुए है। लैंगिक-समानता में काफी प्रगति होने के बाद भी समाज सामान्य रूप से यही सोचता है कि कुछ कार्यक्षेत्र सिर्फ पुरुषों के लिए और कुछ दूसरे सिर्फ महिलाओं के लिए उपयुक्त हैं।
अब पुनः प्रबंधन पर लौटें। पुरुष सोचते हैं कि महिलाएँ कभी भी उतनी कठोर और निष्ठुर नहीं हो सकतीं जितने वे होते हैं। यह उनके स्वाभाव में ही नहीं होता। वे अपने कर्मचारियों पर चीखने-चिल्लाने में संकोच करती हैं। अगर यही बात है कि दृढ़ता तभी व्यक्त होगी जब आप अपने मातहतों पर चीखेंगे-चिल्लाएँगे, शोर मचाएंगे और उन्हें अपने से तुच्छ समझेंगे तो मुझे लगता है कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को प्रबंधन के उच्च पदों तुरंत पदोन्नत कर दिया जाना चाहिए। अगर पुरुष स्वभावतः अपना गुस्सा काबू में नहीं रख सकते तो फिर महिलाओं को ऊंचे पदों पर आकर यह ज़ाहिर करना और पुरुषों को सिखाना चाहिए कि किस तरह दूसरों का अपमान किए बगैर और उन्हें अपना साथी समझकर और उन्हें अपने से नीचा समझे बगैर भी सख्त हुआ जा सकता है! कि आप बिना कर्कश हुए भी सख्त हो सकते हैं। कि आप विनम्र और सौम्य बने रहते हुए भी अपनी टीम को सफलता की ओर ले जा सकते हैं।
ऊंचे पदों पर ज़्यादा महिलाओं की नियुक्ति होने पर दूसरी सभी समस्याएँ खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएंगी। कोई यह नहीं समझेगा कि ये काम पुरुषों के लिए आरक्षित हैं। अगर कोई महिला किसी पुरुष से बेहतर परिणाम प्राप्त करने में सफल रहती है तो पुरुष को तकलीफ नहीं होनी होगी! और तब किसी पुरुष की यह हिम्मत नहीं होगी कि वह किसी भी महिला को किसी काम को करने का बेहतर तरीका बताए!
मैं जानता हूँ कि पश्चिम में बहुत सी महिलाओं को ऊँचे पदों पर काम करते हुए इस तरह की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता या पुरुष सहकर्मियों की तुलना में पर्याप्त सम्मान न पाने का बहुत हल्का सा एहसास भर उनके मन में रहता है। लेकिन यह होता है और यह बात, मैं क्या कह रहा हूँ यह वही समझ सकता है, जिसने इन अनुभवों को झेला है, जब कोई सहकर्मी आपको यह बताने की चेष्टा करता है कि आप किसी काम को करने में उतने सक्षम नहीं हैं, जितना कि वह है।
पश्चिमी देशों में, जहाँ महिला सशक्तिकरण के आन्दोलन काफी सफलता प्राप्त कर चुके हैं, स्थिति काफी अच्छी है मगर भारत में माहौल बिल्कुल अलग बल्कि निराशाजनक है। बड़ी कंपनियों के निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की संख्या बहुत कम है और वैसे भी कुल मिलाकर नौकरियाँ या अपना खुद का काम-धंधा करने वाली महिलाओं की संख्या ही नगण्य है।
तो आप उनकी परिस्थिति की कल्पना कर पा रहे होंगे- निचले पदों पर, पुरुष कर्मचारियों से कम पैसों में तो महिलाएं काम कर सकती हैं मगर कठिन कामों के लिए उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
दुनिया भर में इस बारे में अब भी बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है। पूर्वी देशों में और पश्चिमी देशों में भी। बराबरी का स्वप्न पूरा हो सके इसलिए, सबके सम्मान के लिए और काम के बेहतर माहौल की स्थापना के लिए। ज़्यादा से ज़्यादा लोग सुखी हों, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए।
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