मेरा मित्र अकेला नहीं था जो डॉक्टर की दवाओं और अंधविश्वासों के बीच झूल रहा था। यहाँ, भारत में बड़ी संख्या में लोग हैं, जो यह जानते हुए भी कि बीमार पड़ने पर डॉक्टर के इलाज के अलावा कोई चारा नहीं है, अपने धार्मिक और पारंपरिक रस्म-रिवाजों और कर्मकांडों को अंजाम देना नहीं छोडते। यही नहीं, वे साक्षात नीमहकीमों और कठबैदों, जो अपने चमत्कारों से बीमारियों का इलाज करने का दावा करते हैं, के पास भी जाने से नहीं हिचकिचाते। जैसा कि मैंने पहले बताया, उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे उन पर भी पूरा भरोसा नहीं करते बल्कि डॉक्टर की सेवाएँ भी लेते हैं! ऐसे लोगों के इतने उदाहरण मेरे नज़र में हैं कि मैंने सोचा एक और किस्सा आपको सुनाऊँ। अपनी किशोरावस्था में हम लोग कस्बे में रहते थे। जहां हम रहते थे वहाँ एक व्यक्ति था जो पीलिया का इलाज करने में माहिर समझा जाता था। वह डॉक्टर नहीं था, न ही दवाइयों का जानकार (pharmacist) था, दवाई बेचने वाला दूकानदार तक नहीं था। वह एक साधु था, एक धार्मिक व्यक्ति जिसे लोग बहुत पहुंचा हुआ साधु समझते थे कि जो अपनी अर्जित शक्तियों से पीलिया के रोगी को रोगमुक्त कर सकता था।
एक बार हमारा एक पड़ोसी पीलिया से ग्रसित हुआ तो उसकी इच्छा पर मैं उसके साथ इलाज के लिए उस साधु के पास गया। इलाज का तरीका बहुत सरल और सीधा-सादा था: साधु ने पड़ोसी को कुछ दिया, जो किसी वृक्ष की छाल जैसा नज़र आता था, और उससे कहा कि थोड़ा सा आगे की ओर झुकते हुए उसे अपने सिर पर रख ले। फिर साधु ने एक जग में पानी लिया और उसे पड़ोसी के सिर पर रखी जड़ीबूटियों पर और सिर पर उंडेलने लगा। जग में रखा पानी स्वच्छ था मगर जब वह उन लकड़ियों के टुकड़ों को छूता हुआ नीचे उसके चेहरे पर बहता था तो उसका रंग गहरा पीला हो जाता था। साधु ने तुरंत हमें बताया कि पीले रंग के पानी के साथ, दरअसल पीलिया रोग बाहर निकल रहा है। स्वाभाविक ही रोगी आश्चर्यचकित रह गया और उसे विश्वास हो गया कि इस इलाज से उसे लाभ हुआ है!
उस किशोरावस्था में भी मुझे उस चमत्कारिक इलाज पर शक था। मैं सोच रहा था कि वह लकड़ी की छाल किस पेड़ की थी, और मुझे लग रहा था कि अवश्य ही उसमें कोई रसायन होगा जो पानी के साथ रासायनिक क्रिया करके उसे पीले रंग में बदल देता था। पाठकों को यह बहुत मूर्खतापूर्ण लगेगा कि बहुत से लोग ऐसे इलाज पर भरोसा करते थे और वह साधु अपने इस ‘इलाज’ के कारण बहुत सम्मानित था!
कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारा पड़ोसी डॉक्टर के पास भी गया… उसे भी उस अंधविश्वास पर भरोसा नहीं था, मगर भरोसा डॉक्टर पर भी नहीं था!
उस साधु जैसे पता नहीं कितने लोग हैं जो अपनी चमत्कारिक हिकमतों से विभिन्न बीमारियों का इलाज करने का दावा करते हैं और असंख्य ऐसे भी लोग हैं जो उनके पास बीमारियों के इलाज के लिए जाते हैं। डॉक्टर से भी इलाज कराते हैं मगर ऐसे ढोंगियों के पास भी ज़रूर जाते हैं। वे पथरी निकलवाने के लिए, कैंसर सेल निकवाने के लिए और दूसरे संक्रमित अंगों को निकलवाने के लिए सर्जरी करवाते हैं, मगर किसी जादूगर या चमत्कारी साधु से हाथ की सफाई और झाड़फूँक भी करवाते हैं।
यह तुलनात्मक रूप से हानिरहित अंधविश्वास है लेकिन आप जब सुदूर गांवों में जाते हैं तो पाते हैं कि वहाँ लोग इससे ज़्यादा अंधविश्वासी हैं और उनके अंधविश्वास, किसी दूसरे विकल्प के अभाव में, बेहद खतरनाक हो चुके हैं। वे लोग छोटी-मोटी, सामान्य बीमारियों को प्रेतबाधा समझते हैं और अपने बीमार बाल-बच्चों पर आए ऐसे ‘भूत-प्रेतों’ को भगाने के लिए ओझाओं के पास जाते हैं। इन ओझाओं द्वारा किए जाने वाले इलाज अजीबोगरीब तो होते ही हैं, बेहद क्रूर और पीड़ादायक, और कई बार बीमार व्यक्ति के लिए खतरनाक भी साबित होते हैं। भारत में इसे तंत्र कहा जाता है और यह आपको मध्य-युग में ले जाता है। आज भी लोग जादू-टोना करने का आरोप लगाकर महिलाओं की हत्या कर देते हैं।
निश्चय ही मेरा पड़ोसी या मेरा मित्र ऐसा नहीं समझते कि कोई जादू-टोना कर सकता है और ऐसा करने वाले की हत्या कर देनी चाहिए। वे अंधविश्वासी हैं मगर उनका स्तर दूसरा है; वे उन गाँव वालों जितना अंधविश्वासी नहीं हैं और आधुनिक, प्रगतिशील दुनिया से उनका संपर्क हो चुका है। फिर भी मैं समझता हूँ कि अपने व्यवहार से वे ऐसे अति-अंधविश्वासों को बढ़ावा ही देते हैं। वे उन्हें खत्म नहीं होने देंगे, बल्कि नीमहकीमों के पास इलाज कराते रहेंगे और अंधविश्वासों को ज़िंदा रखेंगे।