सफलता और शिखर पर पहुँचने की महत्वाकांक्षा कहीं तनाव, अवसाद और पतन की राह पर न ले जाए! 21 अगस्त 2013

कल मैंने कामकाजी जीवन में लोगों के बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा के विषय में लिखा था। ये प्रतिस्पर्धाएँ इसलिए आयोजित की जाती हैं कि लोग सफलता के पीछे दौड़ें और थोड़ा बहुत अतिरिक्त आर्थिक लाभ अर्जित कर सकें। इससे लोगों के जीवन में काम का शारीरिक दबाव और मानसिक तनाव बढ़ते जाते हैं और जैसे-जैसे वे ऊपर उठते जाते हैं, यह दबाव और तनाव भी बढ़ता जाता है और अंततः वह आपको क्षीण और जर्जर बना देता है। इसे अंग्रेज़ी में बर्न-आउट कहते हैं। हम इसे शारीरिक और मानसिक क्षय कह सकते हैं, जो आगे चलकर लंबे अवसाद में तब्दील हो जाता है और उसके बाद उससे उबरने के लंबे प्रयास और अंततः व्यक्तिगत लक्ष्य और जीवन का अर्थ खोजने की लंबी प्रक्रिया में उलझकर रह जाता है।

विशेषकर बड़ी कंपनियाँ किसी व्यक्ति की कोई परवाह नहीं करतीं। यह बात हर व्यक्ति जानता है लेकिन एक बार जब आप वहाँ पहुँच जाते हैं, आंकड़ों और पुरस्कारों के उस तंत्र (व्यवस्था) का हिस्सा बन जाते हैं तो यह बात बिल्कुल भूल जाते हैं और अपने सहयोगियों को अपना प्रतिस्पर्धी मानकर व्यवस्था द्वारा प्रायोजित उस दौड़ में शामिल हो जाते हैं। आपकी नज़रें कंपनी के लक्ष्यों पर होती हैं और दाएँ-बाएँ आपको कुछ भी दिखाई नहीं देता। लक्ष्य महज एक आंकड़ा होता है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं। आपको एक दिन में इतने लोगों से मिलना है, मिले गए इतने लोगों में से इतना प्रतिशत बिक्री में तब्दील हो जाना चाहिए, उतने लोगों से इकरारनामे पर दस्तखत करा लें और अंततः, उतना लाभ, रुपए की शक्ल में कंपनी के खाते में जमा हो जाना चाहिए! आप समझते हैं कि आपने कोई महत्वपूर्ण काम अंजाम दिया है और पूरी कंपनी और उसका नेतृत्व आपसे प्रसन्न हैं और आप पर गर्व करते हैं। जब कि वास्तविकता यह होती है कि कंपनी और उसका नेतृत्व अपनी सफलता पर खुश हैं, आंकड़ों पर खुश हैं, अपने खाते में आई हुई रकम से खुश हैं, आप पर गर्वित नहीं हैं! जब कि आप अपने अस्तित्व को कंपनी के साथ, उसके लिए निष्पादित अपने महत्वपूर्ण काम के साथ और उसके लिए प्राप्त अपनी सफलता के साथ जोड़ लेते हैं जब कि वास्तविकता यह होती है कि कंपनी को लक्ष्य तक पहुँचाने की व्यवस्था के काम में आप महज एक छोटे से पुर्जे होते हैं!

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जो बड़ी कंपनियों में काम नहीं करते वे इन दबावों और तनावों से बचे रहते हैं। विशेषकर स्वरोजगारी और छोटी कंपनियों के मालिकों को भी उतना ही तनाव झेलना पड़ता है क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी सफलता स्वयं उन पर निर्भर है। पैसा आता रहे, इसके लिए उन्हें अक्सर कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है लेकिन वे भी ज़्यादा से ज़्यादा धन कमाने, ज़्यादा से ज़्यादा सफलता अर्जित करने के चक्कर में उसके साथ मुफ्त मिलने वाले तनावों और दबावों के मकड़जाल में उलझकर रह जाते हैं। और आसपास के लोग, समाज, विज्ञापन आदि सभी सफलता के लिए जारी इस अंधी दौड़ को प्रोत्साहित करते हैं।

यह कहना कोई नई बात नहीं होगी कि यह समाज धन-केन्द्रित है। यह भी कोई नई बात नहीं है कि व्यापक जनसमुदाय व्यक्ति की कोई परवाह नहीं करता। लेकिन आप खुद क्या सोचते हैं? आप क्यों इस खेल में लगे हुए हैं? आप क्यों इस तरह की जीवन पद्धति अपनाए हुए हैं, प्रोग्राम्ड कंप्यूटर या किसी मशीन जैसी? आप अपने मनोरंजन के लिए कुछ नहीं करते, अपने कार्य में सफलता के अलावा कोई दूसरी बात आपको प्रसन्न नहीं कर पाती, आप खुद अपना स्वार्थ भूल जाते हैं, आपका सामाजिक जीवन मृतप्राय होता जा रहा है और आप स्वयं अपनी और ध्यान नहीं देते। महत्वपूर्ण सिर्फ एक बात होती है: काम और उसमें ज्यादा से ज्यादा सफलता! किसी दूसरी बात के लिए आपके पास समय ही नहीं है।

यही वह घड़ी होती है, जब लोग शारीरिक और मानसिक रूप से क्षयग्रस्त हो जाते हैं। वे टूट जाते हैं और इसका अर्थ यह होता है कि उनकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का पूरी तरह क्षरण हो चुका होता है। कई लोगों को स्मृतिह्रास या स्मृतिभ्रम हो जाता है-वे सारे अंक और नाम, जो उनके लिए पहले बड़े महत्वपूर्ण थे अब उनकी स्मृति से विलुप्त हो जाते हैं। कई लोगों के लिए, उसके बाद, अवसाद के कठिन समय की शुरुआत हो जाती है। प्रतिपल, क्रमशः उनका पूरा जीवन धराशायी होता चला जाता है, अक्सर आसपास के लोगों ने ऐसी अपेक्षा नहीं की होती। उन्हें पेशेवर सलाहकार की आवश्यकता होती है और जब कि वे हर सप्ताह, नियमित रूप से मनोचिकित्सक के पास जाते हैं, सामान्य हालत में वापस लौटने के लिए उन्हें स्वयं भी इस पर अथक प्रयास करना होगा।

दरअसल, ‘लौटना’ नहीं, वापस, वही जीवन नहीं! नए जीवन की शुरुआत कीजिए, अपने लिए एक अलग जीवन की तलाश कीजिए, एक संतुलित और शांत जीवन!

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