कल जब मैं उस स्कूली किताब के बारे में लिख रहा था जिसमें बताया गया था कि आपको परिवार के कम से कम एक सदस्य से डरना चाहिए-जो ज़ाहिर है, अधिकतर पिता ही होंगे-तब मुझे लगा कि लैंगिक भूमिकाओं पर मुझे थोड़ा और विचार करना चाहिए। बहुत सोचने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि आधुनिक देशों में भी आज भी सिर्फ इसलिए कि वे पुरुष हैं या महिला, लोग इस उधेड़बुन में रहते हैं कि किन कामों को करने की उनसे अपेक्षा की जाती है।
स्वाभाविक ही, भारत में लिंग के आधार पर कामों का परंपरागत विभाजन पूरी तरह लागू होता है। पुरुष परिवार का अन्नदाता है। बहुत से परिवारों में महिलाएँ काम के लिए तभी घर से निकलती हैं जब बिल्कुल खाने-पीने के लाले पड़ जाते हैं और पैसे कमाने के लिए बाहर निकलना अवश्यंभावी हो जाता है। हमारे स्कूल के गरीब परिवारों में भी कुछ पिता शर्म से डूब मरेंगे अगर उनकी पत्नी को भी बाहर काम करके परिवार की आमदनी में योगदान देना पड़े! अर्थात वे भूखे पेट सो जाना पसंद करेंगे लेकिन अपनी पत्नियों को बाहर काम करने की इजाज़त नहीं देंगे। तब भी जब खुद पत्नी शिद्दत से चाहती है कि बाहर निकलकर खुद भी परिवार के लिए पैसे कमाए!
निश्चित ही भारत में आज भी विवाह के बाद और बच्चे हो जाने के बाद ज़्यादातर महिलाएँ घर में ही रहती हैं भले ही वे विश्वविद्यालय में पढ़कर डिग्रियाँ हासिल कर चुकी हों उनके पास स्नातकोत्तर डिग्रियाँ हैं लेकिन क्योंकि वे स्त्री हैं, उनका काम सिर्फ घर पर रहकर वहाँ की व्यवस्था बनाए रखना और बच्चों की देखभाल करना भर है।
लेकिन पश्चिम में भी मैंने देखा है कि आज भी पुरुष और महिलाओं में अपनी-अपनी परंपरागत भूमिकाओं को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है और वे उन्हें पूरी तरह छोड़ने में हिचकते हैं। आज भी यह पूरी तरह स्वीकार्य है कि पत्नी बच्चे हो जाने के बाद घर में बैठकर घर के काम-काज देखे और बच्चों की परवरिश करे। अगर यह आर्थिक रूप से संभव है और पत्नी को घर पर रहना पसंद है तो मैं भी उसकी सिफ़ारिश करूँगा उसे प्रोत्साहित करूँगा कि वही करे! लेकिन साथ ही अगर पति यही करना चाहे तो वह भी सबको स्वीकार्य होना चाहिए! पत्नी काम पर जाए और घर के खर्चे उठाए जबकि पति घर के कपड़े धोने से लेकर बच्चों की चड्ढियाँ साफ करे!
दुर्भाग्य से जो पुरुष इसकी पहल करते हैं, उनकी हँसी उड़ाई जाती है। इस दिशा में उनके प्रयासों का अनादर किया जाता है-और यह यही दर्शाता है कि आप वास्तव में उन महिलाओं को कितना कमतर आँकते हैं जो पहले ही इन कामों में लगी हुई हैं! अभी भी आप समझते हैं कि घर के काम कम महत्वपूर्ण हैं, कम मुश्किल हैं और उन्हें कोई भी ऐसा व्यक्ति कर सकता है जो अपनी अल्प योग्यता के चलते पैसे कमाने वाले ‘बड़े काम’ नहीं कर सकता! यह हास्यास्पद है! इसका सबसे अच्छा इलाज यह होगा कि ऐसा समझने वाले को खुद ये काम करके देखना चाहिए! चुनौती स्वीकार करें और मुझे दिखाएँ कि आप किस तरह सारे घर की साफ-सफाई करते हैं, बाज़ार जाकर राशन लाते हैं, सारे परिवार के लिए खाना पकाते हैं और सबके मैले कपड़े धोते हैं, जबकि आपके दो छोटे-छोटे बच्चे सारे घर में धमाचौकड़ी मचा रहे हैं!
क्या यह अविश्वसनीय नहीं है कि आज, 21 वीं सदी के 15 साल गुज़र जाने के बाद भी बहुत से लोग यही मानते हैं कि अपने कपड़े साफ करना, अपने लिए खाना पकाना पुरुषों के करने योग्य काम नहीं हैं-अपनी संतान को खाना खिलाने जैसे कामों की बात तो छोड़ ही दीजिए जबकि ये काम एक दिन आपकी संतान भी आपके लिए करेगी?
और जब लोग यह सोचते हैं कि पुरुषों को रोना नहीं चाहिए, तो इसका कारण भी यही होता है। और, क्योंकि स्नेह का प्रदर्शन महिलाओं के खाते में आता है इसलिए पश्चिम में आप महिलाओं को तो आपस में हाथों में हाथ डाले घूमता हुआ देख सकते हैं लेकिन पुरुषों को नहीं। ऐसा क्यों? क्यों स्नेह का प्रदर्शन महिलाओं के लिए आरक्षित है जबकि पुरुषों के लिए अपनी कोमल भावनाओं को दूसरों से साझा करने की जगह शराब को ही समस्या का समाधान मान लिया जाता है!
एक तरफ लोग महिलाओं की क्षमता का सम्मान नहीं करते, उनकी नज़रों में उसकी कोई कीमत नहीं और दूसरी तरफ पुरुषों के कंधों पर बहुत ज़्यादा भार डाल देते हैं! कृपया ऐसा न करें। महिलाओं के पास उनके अपने बोझ लदे हैं- लेकिन उनके संबंध में कल चर्चा करेंगे।
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