हमारे गरीब बच्चों की और हमारी निराशा और असहाय स्थिति – 12 मई 2015
कल मैंने आपको बताया था कि हम अगले शिक्षा-सत्र से 6ठी और 7वीं कक्षाएँ समाप्त कर रहे हैं और अपने स्कूल की कक्षाओं को 8वीं तक बढ़ाने की योजना भी स्थगित कर रहे हैं। हम जानते हैं कि हालांकि अब हम उन बच्चों को अपने स्कूल में नहीं पढ़ा पाएँगे लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई में हर संभव मदद करते रहेंगे। लेकिन इस दिशा में क्या किया जाए, यह प्रश्न हमारे लिए समस्या बनता नज़र आ रहा है! यह काम इतना कठिन होगा, हमें अनुमान नहीं था!
हमारे शहर में कई स्कूल हैं और स्वाभाविक ही एक या दूसरे स्कूल की खबरें दूसरे सभी स्कूलों को भी मिलती ही रहती हैं। तो इसलिए हमारे स्कूल के पास ही स्थित एक निजी स्कूल वालों ने हमसे संपर्क किया। वे हमारे स्कूल के बारे में जानते थे और यह भी जानते थे कि हम गरीब बच्चों को सब कुछ मुफ्त मुहैया कराते हैं। हमने उन्हें आश्रम आकर बात करने का न्योता दिया।
जब उस स्कूल के मालिक अपने प्रधानाध्यापक के साथ हमारे पास आए तो मैंने खुद उनसे बात की। उन्होंने अपने स्कूल में हमारे बच्चों को भर्ती करने का प्रस्ताव रखा। मैं साफ बात करना चाहता था और मैंने पूछा कि खर्च कितना आएगा। मैं जानता हूँ कि वे किसी तरह का चैरिटी स्कूल नहीं चला रहे हैं। उनका स्कूल एक तरह का व्यापार है और दाखिले के समय जो पैसा आता है और फिर हर माह बच्चों से जो स्कूल फीस वसूली जाती है वह उनकी आमदनी का जरिया होते हैं। इसलिए मैंने उनसे कहा कि बच्चों के अभिभावक नहीं, बल्कि हम फीस अदा करेंगे क्योंकि बच्चे गरीब हैं और उनके माता-पिता के पास स्कूल फीस जमा करने के लिए पैसे नहीं होते। क्योंकि वे हमारी आर्थिक स्थिति और हमारे चैरिटी कार्यों के बारे में जानते थे, हमने उनसे अच्छे-खासे डिस्काउंट की मांग की।
उनकी प्रतिक्रिया टिपिकल भारतीय प्रतिक्रिया थी। अर्थात मुझे खर्च की ठीक-ठीक रकम नहीं बताई गई-बल्कि उसकी जगह उन्होंने बड़ी दरियादिली दिखाते हुए कहा: "अरे आप चिंता मत कीजिए। हम जानते हैं कि आप समाज की भलाई के लिए कितना बड़ा काम कर रहे हैं! जो आपकी मर्ज़ी हो, दे दें!" आप कल्पना कर सकते हैं कि मैं कितना खुश हुआ होऊँगा! हम इस निजी स्कूल में अपने बच्चों को भेज पाने में समर्थ हो पाएँगे!
हमने दो दिन बाद अपने सभी 35 बच्चों को स्कूल बुलाया। हमारे स्कूल के प्रधानाध्यापक उन बच्चों के साथ उनके प्रवेश फॉर्म्स भरने और भर्ती की औपचारिकताएँ पूरी करने उस निजी स्कूल गई। दुर्भाग्य से एक दुखद आश्चर्य हमारा इंतज़ार कर रहा था: जब बच्चे वहाँ पहुँचे, वहाँ के प्रबन्धक ने वह रकम बताई, जो हमें प्रवेश फीस के रूप में जमा करानी थी और इसके अलावा मासिक फीस की जानकारी भी दी। ये दोनों फ़ीसें भरना आर्थिक रूप से हमारी कूवत के बाहर की बात थी। फीस के अलावा बच्चों की वर्दियों का, किताब-कापियों और दूसरे लिखने-पढ़ने के सामान का खर्च भी था, जिसे हमें उठाना था!
प्रधानाध्यापक ने हमें फोन किया और हमने स्कूल के मालिक और कर्ता-धर्ता से बात की तो हमें जवाब मिला: ये खर्चे तो डिस्काउंट के बाद के हैं, आपके लिए इससे ज़्यादा हम कुछ नहीं कर सकते!
हम बुरी तरह निराश हो गए! सभी बच्चे वापस आए, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। यही बात हमें सबसे ज़्यादा परेशान कर रही थी। अगर हमें पता होता कि हम उन्हें उस स्कूल में नहीं भेज सकेंगे तो हम उन्हें भर्ती की संभावना का दिलासा ही नहीं देते और इस तरह उन्हें भावनात्मक द्वंद्व से बचा लेते! उस व्यक्ति ने पहली मुलाक़ात में ही मुझसे स्पष्ट बात क्यों नहीं की, जब वह हमारे कार्यालय में सामने बैठकर रूबरू बात कर रहा था? क्या इससे हम और हमारे बच्चे बेकार की निराशा बच नहीं जाते?
खैर, संक्षेप में कहें तो हमने एक दूसरे स्कूल की तलाश की कोशिश की, जहाँ फीस कम हो मगर पता चला कि सभी निजी स्कूलों में फीस का ढाँचा लगभग एक जैसा ही है, या फिर इससे भी ऊँचा है। हमने अपने आपको बच्चों के अभिभावकों की जगह महसूस किया-फर्क सिर्फ इतना था कि हम एक साथ 35 बच्चों के लिए स्कूल ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे थे!
अंत में हम एक सरकारी स्कूल गए, जहाँ मेरे भाई और मैं बचपन में पढ़े थे। हमने उस स्कूल में अपने बच्चों को भर्ती कराने का निर्णय किया। स्वाभाविक ही, वहाँ पढ़ाई का स्तर वह नहीं है, जैसा हम बच्चों के लिए चाहते हैं-लेकिन क्योंकि वहाँ खर्च बहुत कम है, हम बच्चों के लिए अलग से निजी कोचिंग की व्यवस्था करने में समर्थ हो सकते हैं और इस तरह उनकी आगे की शिक्षा में मदद कर सकते हैं!
इस बीच हमारे घर में और हमारे दिमागों में यह प्रकरण बहुत उथल-पुथल मचाता रहा। अगले कुछ दिन मैं उन्हीं तथ्यों, विचारों और उनसे उपजी भावनाओं को विस्तार से अपने ब्लॉगों के ज़रिए व्यक्त करता रहूँगा!
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