कल मैंने यूरोपियन सरकारों से अपील करते हुए अपने ब्लॉग में गुजारिश की थी कि धर्म को अपने पैर पसारने का मौका न दें और सिर्फ इसलिए कि मुसलमानों की संख्या बढ़ गई है, बड़ी संख्या में मस्जिदों की तामीर की इजाज़त न दें। शायद बहुत से लोग मेरे इस विचार से यह सोच सकते हैं कि मैं इस्लाम के विरुद्ध पूर्वग्रह से ग्रस्त हूँ। मैं उनके इस सोच का प्रतिवाद करते हुए इस पर थोड़ी चर्चा करना चाहता हूँ।
पहली बात तो यह कि मैं इस्लाम या मुसलमानों के विरुद्ध पूर्वग्रह नहीं रखता लेकिन कुछ समय पहले मैंने कहीं पढ़ा कि यह कह देना इस्लाम विरोधी चर्चा को रोक देने का सबसे अच्छा उपाय है-क्योंकि कोई भी भला व्यक्ति यह कहलाना पसंद नहीं करेगा! लेकिन मैं परस्पर संवाद बंद नहीं करूँगा क्योंकि मेरे विचार में यही वह बात है जो सबसे अधिक ज़रूरी है!
मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ: जी हाँ, आतंकवाद का मुख्य कारण धर्म ही है। और इस्लाम शांति का धर्म नहीं है। हिंसा खुद उसमें मौजूद है!
कुरान की इन आयतों पर गौर करें:
जो लोग अल्लाह और उसके पैगंबर के विरुद्ध युद्ध छेड़ते हैं और पूरी शक्ति से उनके विरुद्ध काम करते हैं, उनकी सज़ा है: वध, या फाँसी देना या विपरीत हिस्से के हाथ और पैर काट दिया जाना या अपने भूभाग से निर्वासन: इस दुनिया में यही उनका अपयश है और मरणोपरांत जीवन में बहुत बुरी सज़ा उनका इंतज़ार कर रही है। 5:33
जैसे दूसरे हैं, उसी तरह ये भी धर्म का त्याग करना चाहते हैं, जिससे वे उनके बराबर हो जाएँ: लेकिन ऐसे लोगों को तब तक अपना दोस्त मत बनाओ जब तक वे अल्लाह की राह पर वापस न आ जाएँ (अर्थात जिस बात की मनाही की गई है उससे दूर न रहें)। लेकिन अगर वे फिर भी झूठे, मक्कार और विश्वासघाती बने रहते हैं, तो जहाँ भी वे मिलें, उन्हें गिरफ्तार करके उनका कत्ल करो; और किसी भी हालत में उनसे मित्रता न करो और न ही उनसे मदद लो। 4:89
जो लोग अल्लाह पर और आखिरत पर विश्वास नहीं रखते और न ही अल्लाह और उसके पैगंबर द्वारा वर्जित चीजों को वर्जित नहीं समझते और न ही इस सच्चे धर्म को मानते हैं तो (भले ही वे किताब में वर्णित लोग हों) उनसे तब तक युद्ध करो, जब तक कि वे हारकर और जलील होकर आत्मसमर्पण न कर दें और खुद होकर जज़िया देने के लिए मजबूर न हो जाएँ। 9:29
ये और दूसरी बहुत सी आयतें ही समाचारों में अक्सर दिखाई देने वाली भयानक हिंसा का मूल आधार हैं और जो हमें बुरी तरह डराती और चिंताग्रस्त कर देती हैं। इसी प्रकार इन आयतों से उद्भूत हिंसा ही मुसलामानों के प्रति हमारे मन में संदेह पैदा करती है, भले ही वे हमारे आसपास बिना किसी को नुकसान पहुँचाए शांतिपूर्वक जीवन गुज़ार रहे हों।
लेकिन वे उस पुस्तक पर विश्वास तो करते ही हैं, वे यही कहते हैं कि वह स्वयं ईश्वर के मुँह से निकले शब्द हैं और, मेरी जानकारी में, दूसरे किसी धर्म से अधिक इस बात का दावा भी करते हैं कि वह न सिर्फ पवित्रतम किताब है बल्कि उसके शब्द अटल और पूर्ण सत्य हैं।
और, मेरे शांतिप्रेमी मुसलमानों, यही समस्या है! आप यह दावा नहीं कर सकते कि इस पुरातन किताब का हर शब्द सही या उचित भी है और फिर यह कि इस्लाम शांति का धर्म भी है! आप उसी पुस्तक पर ईमान लाते हैं, जिस पर उन लोगों का भी यकीन है, जो इस धरती के विशाल हिस्से को आतंक के साए में लपेटे हुए है। स्वाभाविक ही, दूसरे सभी धर्मग्रंथों की तरह कुरान में भी कुछ अच्छी बातें भी दर्ज हैं! लेकिन बहुत सारी दकियानूसी, क्रूर, भयानक और अमानुषिक बातें भी लिखी हुई हैं, जिन पर मुसलामानों के लिए चलना अनिवार्य है।
ऐसी विषयवस्तु या पाठ दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों में भी मौजूद हैं लेकिन उनके धर्मावलंबी इस बात का दावा नहीं करते कि उनमें लिखी सारी बातें अटल और अंतिम सत्य हैं या यह कि अब भी वे ग्रंथ अप्रासंगिक नहीं हैं! वे अपने धर्मग्रंथों को समय के संदर्भ में देखते हैं, जैसा करने में इस्लाम असफल रहता है।
यहाँ हम किसी आयत की गलत व्याख्या नहीं कर रहे हैं, न ही हमारी समझ कोई चूक हुई है और न ही इसमें किसी अन्योक्ति, उपमा या अलंकार का हम कोई अनुचित अर्थ ले रहे हैं। सब कुछ स्पष्ट लिखा है। दरअसल इस ग्रंथ की विषयवस्तु उस समय की है जो समय बेहद कुरूप, क्रूर और रक्तरंजित रहा है। और जब तक आप इस किताब से चिपके रहेंगे, तब तक लोग उसे अक्षरशः ग्रहण करेंगे और दूसरे मतावलंबियों की गर्दन उतारने पर आमादा होते रहेंगे!
इसीलिए हमारे लिए यह आवश्यक हो जाता है कि इस धर्म को और अधिक फैलने से रोकें। ऐसी किसी काम की इजाज़त न दें, ऐसी कोई संस्था स्थापित करने की अनुमति न दें, जहाँ इस धर्म का प्रचार किया जाता हो, जिससे रूढ़िवादियों, कट्टरपंथियों और इस्लामी चरमपंथियों के प्रशिक्षण पर लगाम लगाई जा सके। और ऐसी जगहें मुख्य रूप से दुनिया भर में फैली मस्जिदें हैं, जहाँ ये धर्मग्रंथ अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाते हैं।
यह विचार इस्लाम के प्रति किसी पूर्वग्रह या दुर्भावना से उद्भूत नहीं है बल्कि इन धर्मग्रंथों से निकली एक सहज-सामान्य निष्पत्ति है और मैं जानता हूँ कि, आपके शांतिप्रेमी धर्म-भाइयों के लिए मन में हर तरह की शुभाकांक्षा होने के बावजूद, बहुत से दूसरे लोग भी इसी नतीजे पर पहुँचे हैं!