सत्य क्या है और क्या है, महज आस्था और अंधविश्वास? 21 जून 2012

आज मैं आस्था और अंधविश्वास, और साथ-साथ सत्य और तथ्य पर संक्षेप में कुछ कहना चाहता हूँ। विज्ञान हमें उन तथ्यों से अवगत कराता है, जिन्हें सिद्ध किया जा सकता है। इसके विपरीत आस्था को सही सिद्ध नहीं कर सकते और न ही अंधविश्वास को सिद्ध कर सकते हैं। विश्वास या आस्था समय, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। आप देखते ही हैं कि दो अलग-अलग जगहों में अलग-अलग आस्थाएँ या अलग-अलग अंधविश्वास पाए जाते हैं और वे एक-दूसरे के बिलकुल विपरीत आस्थाएँ और विपरीत अंधविश्वास भी हो सकते हैं। इसका कारण यही होता है कि उनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता और इसीलिए वे तथ्य नहीं होते, महज विश्वास होते हैं।

लोग अंधविश्वास पर आस्था रखते हैं क्योंकि वह उनके मस्तिष्क को शांति और ढाढ़स पहुंचाता है। यह मानव स्वभाव है कि आप उन्हीं बातों पर भरोसा करना चाहते हैं जो आपके अनुकूल और दिल को सुकून पहुँचाने वाली हों, भले ही उनमें कोई सचाई न हो। तथ्य, निश्चय ही सच होता है मगर वह विक्षोभकारी और विचलित करने वाला भी हो सकता है। इसीलिए लोग अक्सर झूठ पर भरोसा कर लेते हैं और सिर्फ यही कारण है कि झूठ का अस्तित्व बना हुआ है। और, झूठ पर विश्वास करने के लिए हमेशा आपको आंखे बंद रखनी होती हैं क्योंकि अगर आप आँखें खोलकर देखेंगे तो पछतावा हो सकता है। सत्य पर विश्वास करने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि वह तो यथार्थ है ही। हकीकत हकीकत है। अगर आप उस पर यकीन करते हैं तो वह सत्य है लेकिन अगर आप उस पर यकीन नहीं भी करते, तो भी वह सत्य है। इसी तरह, जो आपकी आँखों के सामने है उसे प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है? जैसे आग को आप अपनी आँखों से देख सकते हैं और आग की सचाई यह है कि वह जलायेगी ही, आप विश्वास करें या न करें।

अंधविश्वासियों को खुद अपने आप पर विश्वास नहीं होता। अक्सर ऐसे लोग कहते सुने जाते हैं: मैंने सुना है; ऐसा लिखा है, मैंने पढ़ा है; किसी ने कहा है; लोग यकीन करते हैं और हम भी मानते है, आदि आदि। वे खुद कुछ नहीं जानते, बस मानते हैं। तथ्य यह है कि आप किसी ऐसी चीज़ को जान ही नहीं सकते, जिसका अस्तित्व ही नहीं है; आप उस पर सिर्फ विश्वास कर सकते हैं, अथवा मान सकते हैं। आँखें बंद करो और विश्वास करो (मान लो), इतना काफी है। आपको कुछ पूछने का अधिकार नहीं है और अगर पूछना ही है तो सिर्फ विश्वास (मान्यता) के बारे में पूछो, संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। धर्म आपसे कहता है कि: जो धर्मग्रंथों में लिखा है उस पर विश्वास करो, मान लो उसे, जानने की कोशिश मत करो और संदेह तो बिलकुल नहीं।

जब भी कोई व्यक्ति आपको किसी बात पर विश्वास करने के लिए कहता है तो तुरंत सावधान और सतर्क हो जाएँ। अपनी आँखों का ध्यान रखें कि मूर्ख बनाने की नीयत से कहीं उन पर विश्वास का काला पर्दा तो नहीं डाला जा रहा हैं। जो लोग धर्म, ईश्वर, धर्मग्रंथों, स्वर्ग, अलौकिक उपचारों और दूसरे अंधविश्वासों पर आस्था रखते हैं, आपसे भी यही कहते हैं कि उन पर विश्वास करो, मान लो उन्हें और आँख मूँदकर उनपर विश्वास करो।

लेकिन विज्ञान आपके दरवाजे पर यह कहने नहीं आएगा कि "आप मुझ पर विश्वास कर लो।" आपको विश्वास करना पड़ेगा, कोई दूसरा चारा नहीं है। धर्म और अंधविश्वास इसी कारण थोड़ी अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए कहते हैं: धार्मिक कर्मकांड और विश्वास तभी कारगर होते हैं जब विश्वास पक्का और अटूट हो, जब काम न हो तो समझिए आपके विश्वास में ही कमी थी। यह ढुलमुल आस्तिकों के लिए नहीं है। क्या शानदार स्पष्टीकरण है! आस्थाएं विश्वास का आग्रह करती हैं और वो भी अंधे विश्वास का, शक न करना और उस पर भी तुर्रा ये कि यदि शक किया तो ये काम नहीं करेंगी! फिर परेशानी क्या है? विश्वास करना बिलकुल छोड़ दीजिए और सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी।

हम अक्सर देखते हैं कि धार्मिक लोग ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं और इसके ठीक विपरीत नास्तिक उसके अनस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास करते देखे जाते हैं। लेकिन वैज्ञानिक ईश्वर के अनस्तित्व को प्रमाणित करने में अपना समय बरबाद नहीं करते। क्या आपने किसी प्रसिद्ध वैज्ञानिक को इस तरह के विवाद या चर्चा में उलझते देखा? निश्चित ही आप अपनी इंद्रियों से ईश्वर को जान नहीं पाएंगे। लेकिन, दुर्भाग्य से बहुत से नास्तिक अपनी पूरी शक्ति और बहुमूल्य समय यह प्रमाणित करने में लगा देते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। कितना अच्छा हो कि वे जमीनी हकीकत को समझें, समाज में घुलें-मिलें और देखें कि लोगों की समस्याएँ क्या हैं। लोग धर्म में आस्था रखते हैं क्योंकि उन्हें कुछ चाहिए, क्योंकि वे मुसीबत में हैं या डरे हुए हैं। बार-बार उन्हें यह बताना कि ईश्वर नहीं है, उन्हें कोई लाभ नहीं पहुंचाता। इस प्रश्न पर कि ईश्वर है या नहीं, लिखकर और चर्चा करके समय बरबाद करने से बेहतर यह होगा कि वे लोगों के बीच जाएँ और उनकी समस्याओं का कोई हल खोजने में अपनी ऊर्जा और समय का इस्तेमाल करें।

कुछ धार्मिक लोग आधुनिक दिखाई देने के चक्कर में इन दोनों का घालमेल करने की कोशिश करते हैं क्योंकि वे जान गए हैं कि धर्म के बगैर तो जीवन संभव है मगर विज्ञान के बगैर नहीं। लेकिन, धर्म और विज्ञान एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत अवधारणाएँ हैं। उनका मेल संभव नहीं है!

हर धर्म एक सत्य को स्थापित करने की कोशिश करता है और उस धर्म को मानने वाले समझते हैं कि सत्य को सिर्फ वही जानते हैं। वे सब अपने-अपने काल्पनिक सत्य की वकालत करने में लगे हुए हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सिर्फ असत्य को प्रमाणित करने के लिए वकीलों की जरूरत पड़ती है। सत्य तो सत्य है और वह अपने आपको स्वयं प्रमाणित करता है। आग लगी है तो उससे ज्वालाएँ उठेंगी, आप विश्वास करें या न करें (मानें या न मानें)। आप खुद जान जाएंगे, उस पर विश्वास (मानने) करने की ज़रूरत नहीं है!

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