दिव्यता का दिखावा या धार्मिक शोर-शराबा – 9 नवंबर 2012

इस सप्ताह मेरा विषय था धर्म और उसका समापन मैं अपने घर, वृन्दावन, के बारे में आपको बताते हुए करना चाहता हूँ। आप सब जानते हैं की हमारा कस्बा बेहद धार्मिक कस्बा है। यह हिन्दू देवता कृष्ण का क्रीड़ांगण माना जाता है और लोग बताते हैं कि यहाँ 5000 से ज़्यादा मंदिर हैं, जहां आप हिंदुओं के विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा कर सकते हैं। यहाँ की धार्मिकता वृन्दावन में प्रवेश करते ही आपको दिखाई देने लगती है। सड़क के किनारों पर कई तीर्थ हैं, कई मंदिर और पूजास्थल आपको दिखाई देते हैं जहां लोग पूजा-अर्चना करने आते हैं और हर तरफ आपको दिखाई देते हैं मंत्रोच्चार करते या भजन और दूसरे भक्तिगीत गाते-बजाते लोग। यही धार्मिक शोर है जिसके बारे में मैं आज आपको बताना चाहता हूँ।

अगर आप कभी भारत नहीं आए हैं तो आप सोच सकते हैं कि ये आवाज़ें जिन्हें मैं शोर कह रहा हूँ, चर्च की घण्टियों की तरह या चर्च के वाद्यवृंद जैसा कुछ होगा, जिसमें बच्चे अपने नाज़ुक स्वरों में कोई गीत गा रहे होंगे। असलियत जाननी हो, उनमें अंतर समझना हो तो खुद यहाँ आकर आपको देखना होगा कि यहाँ क्या होता है। जिस मंदिर की जितनी प्रतिष्ठा है, उसके मुताबिक वहाँ सड़क की तरफ मुंह फाड़े, बड़े-बड़े स्पीकर लगे होते हैं जो शोर को बाहर की तरफ, सड़क पर बिखेर देते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता कि मंदिर में कोई कार्यक्रम हो रहा है या नहीं; चाहे दो-चार लोग ही वहाँ क्यों न हों, वे ऊंची आवाज़ में स्पीकर चला देंगे और सड़क और पास-पड़ोस उसके शोर से गुंजायमान हो उठेगा। यह कोई सौम्य और मधुर संगीत नहीं होता बल्कि तेज़ आवाज़ में बजता कर्कश मंत्रोच्चार या भजन होता है जो अक्सर सांगीतिक प्रतिभा, मिठास और लय-ताल से कोसों दूर होता है। मैं उसे हमेशा ही धार्मिक ध्वनि-प्रदूषण कहता हूँ।

इसके पहले कि अपने कस्बे से प्रेम करने वाले घोर वृन्दावन-प्रेमी मुझे कोसना शुरू करें, मैं बताना चाहता हूँ कि मुझे धार्मिक स्तोत्रों और भजनों से कोई शिकायत नहीं है। वास्तव में मैं तो खुशनुमा माहौल में गीत-संगीत का समर्थक हूँ और आश्रम में भी जब लोग मधुर आवाज़ में गाते हैं और रसोई तक मधुर संगीत में शराबोर हो जाती है, मुझे बड़ा अच्छा और सुखकर लगता है। हर मंदिर का यह अधिकार भी है कि गाना-बजाना कर सकें, भले ही गाने वाले संगीत में बहुत निष्णात न हों। लेकिन आप उन चार या पाँच लाउडस्पीकरों को अपने मंदिर की दीवार पर क्यों लगा देते हैं? आखिर क्यों? उन्हें सम्पूर्ण तीव्रता के साथ लगाने की कौन सी मजबूरी है? क्यों सड़क पर आने जाने वालों के और पड़ोसियों के कानों में चीखने चिल्लाने के लिए उन्हें छुट्टा छोड़ देते है? जिन्हें आपका संगीत सुनना है वे मंदिर आकर सुन सकते हैं और जो नहीं आ रहे हैं वे आपका संगीत नहीं सुनना चाहते। फिर आप ऐसा क्यों करते हैं? आखिर क्यों?

मैं मानता हूँ कि यह बाहरी और दिखावटी धर्म है अंदरूनी नहीं। आप यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि आप कितने धार्मिक हैं और समझते हैं कि जितना तेज़ आप चीखेंगे उतना ही धार्मिक और ईश्वर के करीब होंगे। क्या आप समझते हैं कि तेज़ आवाज़ में स्पीकर चलाकर और दूसरों की नींद खराब करके आप नास्तिकों को और दूसरे धर्म को मानने वालों को अपने धर्म की ओर मोड़ सकते हैं? इतना तो आप मानते ही होंगे कि ऐसा आप दूसरों के लिए करते हैं, अपने लिए नहीं! अगर आप यह अपने लिए कर रहे होते तो स्पीकर की आवश्यकता ही क्या है, आप स्वयमेव खुश रहते, गाते-बजाते, संगीत सुनते और जो भी धार्मिक भावनाएँ आप अपने भीतर जगा सकते हैं, जगाते हुए, अपने में मग्न।

मैं कई बार सोचता हूँ कि जब लाउडस्पीकर नहीं हुआ करते थे तब कैसा माहौल रहा करता होगा। जब मैं छोटा था, हम सिर्फ त्योहारों पर लाउडस्पीकर सुना करते थे, हमेशा, साल भर नहीं, रोज़-बरोज, सुबह-शाम नहीं! मैं इससे इंकार नहीं करता कि लगातार संगीत कस्बे को एक खास तरह का माहौल प्रदान करता है-लेकिन ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’! मुझे लगता है कि यह कुछ ज़्यादा ही हो गया है, अत्यधिक तीखा और कर्कश भी। यह विभिन्न मंदिरों के बीच चल रही प्रतियोगिता जैसा हो गया है कि कौन सबसे तेज़ और ज़्यादा वक़्त लाउडस्पीकर चलाता है। मुझे विश्वास है कि सड़क पर चलते लोग मंदिर से निकलने वाले वास्तविक मानवीय स्वर सुनना ज़्यादा पसंद करेंगे, लाउडस्पीकर से होकर आने वाला शोर नहीं।

मेरा मुख्य मुददा यह था कि लोग अपनी धार्मिकता का दिखावा करना पसंद करते हैं। ऐसा करना ठीक नहीं है-यथार्थ और वास्तविक बनें-जो आप हैं उससे अधिक प्रदर्शित करने का पाखंड न करें। यह आवश्यक नहीं कि आप अपना संगीत दूसरों को ज़बरदस्ती सुनाने की कोशिश करें, उन पर थोप दें।

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