कल मैंने बताया कि मैं कुम्भ मेले में नही जा रहा हूं क्योकि इस बात को मैं नही मानता कि गंगास्नान से पाप धुलते हैं और सिर्फ इसलिये ही नही बल्कि और भी वजहें है जिसमें मुझे दिलचस्पी नही है और वास्तव में वे चीजे़ मुझे नापसन्द है पर साथ ही खुशी इस बात की है कि इस समय मैं इलाहाबाद के नज़दीक नही हूं। एक अति महत्वपूर्ण बात जो कि मैने देखी वह यह कि इन साधुओं और बाबाओं में धनलोलुपता बहुत होती है। एक बहुत बड़ा धन्धा धर्म के नाम पर चल रहा है।
मैंने ऐसी रिपोर्ट देखी और सुनी हैं जो लोग कुम्भ मेले से वापस आये है उनकी यही प्रतिक्रिया थी कि वहां पर धर्म के नाम पर धन्धा चल रहा है। मैं उन गुरुओं, महात्माओं और साधुओं के बारे में उल्लेख कर चुका हूं जो इस समय कुम्भ मेले में हैं। वो सिर्फ साधु और गुरु ही नहीं हैं बल्कि उन्हें धन कमाने के बहुत तरीके आते है और यही उनका धन्धा है।
वे प्रवाचक तो है और प्रवचन देना उनका काम है और भाषणबाज़ी भी अच्छी कर लेते हैं। वे अनुष्ठान करते हैं, गंगा में डुबकी लगाते हैं, और लोगों को भीड़ भी अपने पास इकट्ठा किये रहते हैं। हांलाकि वह अपनी भाषणबाज़ी के लिये धन नही मांगते हैं बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से लोगों से अनुष्ठान कराने के लिये अवश्य धन मांगते हैं। वे अपने शिविरों में अनुयायियों के साथ इकट्ठा रहते हैं और उनका प्रयास रहता है कि इस आयोजन पर अधिक से अधिक अनुयायियों की जमात बनाते जायें। उनके अनुयायी उन्हें उनसे मिलने, आर्शीवाद लेने और अनुष्ठान कराने का धन देते हैं।
ये सभी गुरु सेल्समैन है, इनके शिविरों में इनकी खुद की दुकाने हैं जिसमें ये माला, ताबीज़, उनके व देवताओ के चित्र बने हुए पेंडेंण्ड्स आदि सब बेचते हैं। अब आप यह तर्क मत देने लगना कि वह खुद तो दुकान पर नही बैठते और न ही पैसे लेते हैं तो इसके लिये आपको बता दूं जैसे बड़े-बड़े सफल दुकानों के मालिक खुद अपनी दुकानों पर नहीं बैठते बल्कि उनके स्टोर मैनेजर बैठते है ठीक वैसे ही इनकी भी दुकानें चलती हैं।
ये होटलों के मालिक भी होते हैं और ये बात इस साल मुझे पता चली है। ये साधु लोग अपने अनुयायियों के लिये आध्यात्मिक छुट्टियों का एक पैकेज भी रखते है जिससे वे लोग कुम्भ मेले में आये और उनके शिविर से किराये पर टेन्ट आदि ले सकें। हमारे स्थानीय समाचार पत्रों में उन सामग्रियों का किराया भी छपा था जिसका मूल्य भी अकसर दर्शनार्थियों की संख्या के अनुसार घटता बढ़ता रहता है, अगर ज्यादा भीड़ हुयी तो अधिक मूल्य और कम हुयी तो कम मूल्य होता है। मूल्यों का विभाजन तीन श्रेणियों नियमित दर्शनार्थी, विशिष्ट दर्शनार्थी और अति विशिष्ट दर्शनार्थी में किया जाता है।
जब मैंने कुम्भ मेले में लोगों के अनुभवो को पढ़ा,तो उनका कहना था कि उन्होंने कुम्भ मेले में ज़रा भी आध्यात्मिकता और दिव्यता का अनुभव नही किया। वहां पर जो भी चींजे़ थी चाहे वो दुकाने हो, खाने का सामान हो और जो लोग टेन्ट लगाये हुये थे उनका बस एक ही उद्देश्य था कि लोग उनकी दुकानों में आये या फिर ये कह लीजिये कि यह सब मज़े लेने के लिये आयोजित किया गया एक मेला हो।
इन सब के साथ सभी गुरू और साधू अपना धन कमाने में लगे हुए थे। कुम्भ मेले में ये बड़ी-बड़ी लग्ज़री कारों से आते हैं और वातानुकूलित टेन्ट में रहते हैं। ये सोने और चांदी के सिंहासन पर बैठते हैं, इनकी मेज पर चांदी के बर्तन रहते हैं और रत्नजडि़त सोने के हार पहनते हैं। ये यह दिखाते हैं कि वह कितने धनी है, अब बताइए कि ये किस प्रकार किसी पैसे वाले सेठ से भिन्न हैं! आप इन्हें धार्मिक व्यापारी कह सकते हो
हास्यास्पद बात यह है कि वह अपने आप को साधु और सन्यासी कहते है मतलब उन्होंने वैराग्य ले लिया है। साधु और सन्यासी ऐसा शब्द है जिसका मतलब है कि जिसका इस भौतिक दुनिया से कोई मतलब न हो और जिसका धन से कोई लेना देना नहीं है। उनका भौतिकवाद और धन का प्रदर्शन साधु शब्द के वास्तविक अर्थ को ही बदल देता है, और ये सब ही आप उस मेले में देखते हैं। इसलिये निश्चित रूप से मैं वहां नहीं जाऊंगा।
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