मैं धर्म के विकास के बारे में पहले ही लिख चुका हूँ कि कैसे डर और अज्ञानता के चलते उसकी उत्पत्ति हुई और लोगों ने कैसे और क्यों एक अव्याख्येय विचार (अवधारणा) की व्याख्या करने की आवश्यकता महसूस की।
समाज में सुव्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से धर्म ने कुछ नियम बनाए और उन्हें धर्मग्रंथों में कानूनों के रूप में दर्ज कर दिया गया। धर्म एक तरह से न्याय देने वाली सत्ता है और उसके द्वारा गढ़े गए धर्मग्रंथ उनके कानूनों की किताब। ये किताबें आपको बताती हैं कि आप अपने दैनंदिन जीवन में क्या कर सकते हैं और क्या नहीं। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे सारे कानून न्याय-संगत और उचित हैं! धर्म अपनी सत्ता और अपना वर्चस्व खोना नहीं चाहता था और इसी कारण उन सत्ताधारियों ने एक और कानून बनाया: इन क़ानूनों को बदला या सुधारा नहीं जा सकता। धर्मग्रंथ पवित्र हैं और उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता!
जब आप कानून की बात करते हैं तो स्वाभाविक ही, राजनीति की बात भी निकल ही आती है। दोनों का आपस में घनिष्ठ संबंध है। और अगर धर्म ने कानून बनाए हैं तो धर्म की अपनी राजनीति भी होगी। लेकिन धर्म जनतंत्र नहीं है। उसने हमेशा निरंकुश शासक की तरह अपना काम किया है। लोगों का शोषण करके, उनके डर का लाभ उठाकर उन्हें अपने क़ानून मानने के लिए मजबूर करके। बिलकुल एक तानशाह की तरह धर्म भी यह बिलकुल नहीं चाहता कि आप सुख-शांति से रहें क्योंकि तब आप पर नियंत्रण रखना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। वह कानून बनाता है और आपके पास उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है।
वास्तविकता यह है कि आप अनंतकाल के लिए एक ही कानून लागू नहीं रख सकते। संभव है, जो आप आज कह रहे हैं वह बीस साल बाद मान्य न हो सके। हो सकता है साल भर बाद ही वह अपनी प्रासंगिकता खो बैठे! इसलिए जब धर्म कट्टर होने की कोशिश करता है, लचीला नहीं होता, बदलने की इजाज़त नहीं देता तो विद्रोही पैदा होते हैं, जैसे बुद्ध और लूथर, जो क्रांति का आह्वान करते हैं। उन्हें तानशाह अपनी सीमाओं से बाहर खदेड़ देते हैं। तब ये विद्रोही उन्हीं पुराने नियमों-क़ानूनों में कुछ बदलाव करके एक नया धर्म शुरू कर देते हैं। तो, इस तरह समय बीतने के साथ, छोटे-छोटे अंतरालों में नए-नए धर्म पैदा होते जाते हैं।
लेकिन अंततः अपने निष्कर्ष और परिणाम में वे एक ही होते हैं। सब अपनी सुविधा के अनुसार अपने क़ानून बना लेते हैं। इसीलिये कई तरह के धर्म, जीने के तौर तरीके और धर्मों की विभिन्न शाखाएँ विकसित हो गए। वे टूटते हैं, फैलते हैं और नए-नए रूपों में सामने आते हैं। यह अतीत में भी हुआ, अब भी हो रहा है और आगे भी होता रहेगा।
तो एक तरफ कुछ स्थानों में पुरातन काल के देवता भी नज़र आ जाते हैं तो कुछ दूसरे स्थानों में, दूसरे लोगों ने, अपने-अपने तरीके से उसका कुछ बदला हुआ रूप गढ़ लिया है। इस तरह देवताओं और ईश्वरों की इतनी सारी किस्में हमें दिखाई देती हैं: छोटे देवता, बड़े देवता, देवता जिनकी मूर्तियाँ होती हैं और देवता, जिन्हें चित्रों या मूर्तियों में प्रदर्शित नहीं किया जाता। कुछ ईश्वर-विहीन धर्म की बात करते हैं और कुछ कहते हैं कि वे किसी पर विश्वास नहीं करते।
व्यक्तिगत रूप से मैं आस्तिकों के ईश्वर से ज़्यादा नास्तिकों के ईश्वर को पसंद करता हूँ। वह एक विचार है, एक अच्छा विचार और मेरे दिल में है, मेरे दिमाग में है। मैंने स्वयं उसका निर्माण किया है। जिस तरह का ईश्वर मैं चाहता था वैसा ही मैंने उसे अपने लिए निर्मित कर लिया। वह मेरा अपना ईश्वर है। और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ और उस पर विश्वास भी करता हूँ।
मेरे लिए ऐसे किसी ईश्वर पर विश्वास करना मुमकिन नहीं है, जो स्वर्ग में बैठा रहता है, जिसे मैं देख नहीं सकता, जो मुझसे बात नहीं करता, जिसे मैं छू नहीं सकता, जो सोना-चांदी धारण किए और फूलों से सुसज्जित मंदिरों में स्थापित है और जिसे कभी-कभी चोर चुराकर ले जाते हैं और वह कुछ नहीं कर पाता। अगर वह अपनी रक्षा खुद ही नहीं कर पाता तो कैसे वह मेरी रक्षा करेगा?
कोई भी निरंकुश शासन पसंद नहीं करता मगर जब लोग विश्वास करते हैं तो यह समझ नहीं पाते कि वे निरंकुश शासन में ही रह रहे हैं। मैं उन क़ानूनों पर विश्वास नहीं कर सकता, जो हजारों साल पहले बनाए गए थे। मैं जनतंत्र पसंद करता हूँ, जनता का शासन। मैं बदलाव पसंद करता हूँ और पसंद करता हूँ स्वतन्त्रता!