पिछले तीन दिनों में मैंने तीन विभिन्न धर्मों, ईसाइयत, हिन्दू धर्म और इस्लाम, के धर्मग्रंथों में पाए जाने वाले अजीबोगरीब, हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और सामान्यतः बहुत क्रूर नियमों के बारे में बताया था। उन्हें उन धर्मग्रंथों से लिया गया था, जिन्हें उनके अनुयायियों द्वारा पवित्र, अकाट्य और परम सत्य माना जाता है और जीवन के हर क्षेत्र में उनका अक्षरशः पालन करने की अपेक्षा की जाती है।
मुझे लगता है कि ये तीनों ब्लॉग यह स्पष्ट कर देते हैं कि उनके अनुयायियों की उपरोक्त धारणाएँ किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं हैं।
बहुत से लोग अपने ही धर्मग्रंथों में पाई जाने वाली इन पंक्तियों के विषय में जानते ही नहीं हैं। पुरोहित और उनके चेले-चपाटे लोगों के सामने इन धर्मग्रंथों का 'साफ-सुथरा रूप' ही पेश करते हैं, जिनमें मेरे द्वारा इन ब्लॉगों में दर्ज क्रूरताओं और मूर्खताओं का कोई ज़िक्र नहीं होता या उन्हें किसी कथा के साथ जोड़कर रूपक की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जैसे वे सिर्फ कोई उदाहरण हों और वास्तव में ऐसा धर्मग्रंथों में न लिखा गया हो। ये पुरोहित आम तौर पर धर्मग्रंथों से प्राप्त उन हास्यास्पद और क्रूर आदेशों की बात नहीं करते। क्यों? इसलिए कि वे जानते हैं कि अगर वे ऐसा करेंगे तो कोई भी उनके पास प्रवचन सुनने नहीं आएगा। अधिकांश उन पर लादी जाने वाली मूर्खतापूर्ण बन्दिशों और क्रूरताओं के बारे में सुनकर भाग जाएंगे।
अधिकांश लोगों के संदर्भ में अज्ञान ही इसका एकमात्र कारण होता है मगर सब पर यह लागू नहीं होता! कई लोग ऐसे भी होते हैं जो जानते हैं कि उन धर्मग्रंथों में क्या लिखा है, उन्होंने पढ़ा होता है, उनका अध्ययन किया होता है और उसके बाद भी मानते हैं कि उन धर्मग्रंथों में लिखे आदेशों और नियमों का पालन किया जाना आवश्यक है। सिर्फ इसलिए कि ये धर्मग्रंथ ईश्वरीय हैं! इसके आगे कोई चर्चा नहीं, तर्क नहीं, कोई बीच का रास्ता (समझौता) नहीं। वाकई, आश्चर्यजनक!
मेरे विचार में ये सूचियाँ, हालांकि अपूर्ण हैं, अच्छी तरह दर्शाती हैं कि धर्मग्रंथ ऐसे समय में लिखे गए जब लोगों का जीवन और जीवन के प्रति उनका रवैया बहुत भिन्न था और स्वाभाविक ही, समय बीतने के साथ उनमें बहुत सी तब्दीलियाँ आ गई हैं। हम इस आधुनिक समय में उनकी तरह नहीं सोच सकते और इसलिए जब हम पढ़ते हैं कि हमें अपने दैनिक जीवन में कितनी हत्याएँ करनी चाहिए या हममें से कितने 'दर्दनाक अंत' को प्राप्त होंगे या औरतों को कैसा व्यवहार करना चाहिए या उनके साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, तो हमें यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता है। वर्तमान समय में ये सब बातें बहुत बेतुकी और अप्रासंगिक हो चुकी हैं।
एक तरफ, कम से कम मेरे लिए, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ये सभी धर्मग्रंथ महज पुरातन साहित्य की किताबें हैं, तो दूसरी तरफ यह देखना बड़ा रोचक है कि तीनों धर्मों के नियमों में काफी हद तक समानता पाई जाती है!
तीनों धर्म साफ तौर पर यह समझाते हैं कि पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ होते हैं और महिलाओं को आज्ञाकारी होना चाहिए, पुरुषों के वश में रहना चाहिए और अपनी खूबसूरती को उजागर नहीं करना चाहिए। तीनों धर्मों के धर्मग्रंथों में आप यह पढ़ सकते हैं कि दूसरे धर्मों को मानने वालों की हत्या कर दी जाए। इस मामले में कोई धर्म कोई अपवाद नहीं रखता और पर्याप्त स्पष्टता के साथ बताता है कि किस तरह नास्तिकों को इस जीवन में और मरने के बाद या पुनर्जन्म लेकर अत्यधिक उत्पीड़न और तकलीफ भोगनी होगी। हिन्दू धर्म और इस्लाम, दोनों में मैंने इस बात के सबूत पाए हैं कि उनके धर्मग्रंथ मानते हैं कि अगर पत्नियाँ अपने पति की आज्ञा का पालन नहीं करतीं या यौन संबंध स्थापित करने नहीं देतीं तो पुरुषों को उन्हें मारने-पीटने का अधिकार है, यहाँ तक कि ये ग्रंथ पत्नियों को मारने-पीटने की सलाह भी देते है। हिन्दू धर्म में जो बात सबसे खुलकर सामने आती है, वह है जाति प्रथा और निचली जातियों की दिल दहला देने वाली दुर्दशा। जो भी यह सोचता है कि जाति प्रथा के संबंध में धर्मग्रंथों में लिखा नहीं गया या उसकी अनुशंसा नहीं की गई है, उन्हें उन श्लोकों, ऋचाओं या स्तोत्रों को पढ़कर अपनी गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए।
एक तर्क यह भी दिया जाता है, खासकर हिंदुओं के मामले में, कि धर्मग्रंथों के मूल पाठ अलग थे और उनमें बहुत सी ऋचाएँ और श्लोक बाद में जोड़ दिये गए हैं, जो उन सारी बुराइयों की जड़ हैं, जिनकी मैं बात कर रहा हूँ। लेकिन मेरा कहना है कि अगर वे बाद में जोड़े गए और गलत हैं तो आज भी वे चलन में क्यों हैं और आज भी वे उन धर्मग्रंथों में क्यों मौजूद हैं। अगर वे बाद में किसी गलत मकसद के चलते जोड़े गए थे तो शताब्दियाँ बीत जाएँ के बाद भी उन्हें निकाल क्यों नहीं दिया गया। और फिर सारी गलत बातों के लिए आज भी उनका हवाला क्यों दिया जाता है? साथ ही क्या सिर्फ नकारात्मक बातें ही जोड़ी गईं? कुछ लोग यह भी कहते हैं कि वे क्रूर नियम सिर्फ एक या दो धर्मग्रंथों में ही पाए जाते हैं और न तो वे हिन्दू धर्म के मुख्य धर्मग्रंथ है और न ही उतने महत्वपूर्ण हैं। लेकिन कई दूसरे धर्मग्रंथ भी हैं, जिनमें उनका उल्लेख मिलता है, भले ही उतने स्पष्ट रूप से नहीं लेकिन जहां देवताओं को क्रूरतापूर्वक और पूरी संवेदनहीनता के साथ उन नियमों का पालन करते हुए दर्शाया गया है। इस तरह वे धर्मग्रंथ भी वही बात कहते देखे जा सकते हैं!
इतनी चर्चा के बाद निष्कर्ष यही निकलता है कि आपको इन धर्मग्रंथों को न तो ईश्वरीय मानना चाहिए और न ही आप उन्हें ऐसा मान सकते हैं। उन्हें मनुष्यों द्वारा, पुरुष-सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के दौर में लिखा गया, जिस समय समाज दूसरे धर्मों के साथ जारी असंख्य युद्धों में लिप्त थे और लड़ाइयाँ और हत्याएँ रोज़मर्रा की सामान्य बातें थीं, जिनमें जनता का उत्पीड़न किया जाता था, औरतों को मारा-पीटा जाता था, उन पर बलात्कार किया जाता था और गुलामी की प्रथा भी बरकरार थी। लोग कहते हैं कि धर्मग्रंथों में संशोधन नहीं किया जा सकता। ठीक है, मगर फिर उनका अनुयायी बनना भी तो आवश्यक नहीं है!
इसके अलावा आपको यह भी समझना चाहिए कि सभी धर्म बहुत मिलते-जुलते हैं। आपका धर्म किसी दूसरे धर्म से बेहतर नहीं है। यहाँ तक कि वे धर्म भी, जिन्हें तीन धर्मों पर बनाई गई सूचियों पर की गई इस चर्चा में शामिल नहीं किया गया है, वे भी इनसे भिन्न नहीं हैं।
तो क्यों न धर्मों से निजात पाई जाए! धर्मों के शताब्दियों के अनुभव से सबक लेते हुए इस बात को समझें कि हमें बुद्धि, तर्क और अपने दिल का कहा मानना चाहिए और प्रेम का अनुयायी बनना चाहिए। किसी धर्म को आपकी स्वतन्त्रता छीनने का कोई अधिकार नहीं है। उसे यह बताने का कोई अधिकार नहीं है कि आप क्या करें या क्या न करें। अपनी ज़िम्मेदारी स्वयं वहन करें, दूसरों के साथ सहिष्णुता का व्यवहार करें, आसपास के लोगों से प्रेम करें और आज़ादी के साथ जीवन जिएँ।