एक सप्ताह से मैं जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं के बारे में लिखते हुए यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि उनसे कैसे निपटा जाए। आर्थिक समस्याओं से शुरू करते हुए मैंने आपसी संबंधों में पैदा होने वाली समस्याओं पर चर्चा की थी और कल जानलेवा बीमारियों और जीवन में भूचाल पैदा करने वाले अपघातों या उनसे होने वाली अपंगताओं के बारे में लिखा था। जबकि ये समस्याएँ निश्चित ही बड़ी गंभीर समस्याएँ हैं, जिनमें दूसरों की मदद की ज़रूरत पड़ सकती है, एक और समस्या अक्सर मेरी नज़र से गुज़रती है और जिनसे निपटना ज़्यादातर लोगों के लिए ख़ासा मुश्किल होता है: संबंधों में अहं के चलते पैदा होने वाली परेशानियाँ।
ऐसा लगता है कि इस विषय का ज़िक्र आते ही लोग आहें भरने लगे हैं, जो मुझे लगभग सुनाई दे रही हैं। लगभग सभी वे लोग, जो किसी स्थाई संबंध में मुब्तिला हैं, समझ गए हैं कि मैं किस बात का ज़िक्र कर रहा हूँ। यह समस्या सबसे जटिल है और सबसे महत्वपूर्ण भी क्योंकि आपसी संबंध का अर्थ ही है साथ रहना, दोनों का मिलकर एक हो जाना! जबकि अहं बहुत निजी इयत्ता है, खुद को दूसरों के ऊपर रखना- साथ रहने वाले दो व्यक्तियों के बीच एक ऐसी मनःस्थिति, जो समस्याएँ पैदा कर सकती है!
बहुत से उदाहरणों में आप देख सकते हैं कि कहीं आपके साथ भी यह समस्या तो नहीं है। पहला उदाहरण है: आपके साथी ने कोई छोटी सी गलती की और आपने उसे ठीक करके उसे बता दिया कि उससे आपको तकलीफ पहुँची है लेकिन आपका साथी इस बात का बतंगड़ बना देता है या बना देती है। उसका अहं यह मानने के लिए तैयार ही नहीं है कि उसने कोई गलती की है और आपके बीच लंबा वाद-विवाद शुरू हो जाता है, जबकि बात ज़रा सी है, बल्कि विवाद की कोई बात ही नहीं है-सिर्फ अहं के चलते यह समस्या पैदा हुई है। या, आप स्वयं नोटिस करते हैं कि अपनी गलती मानना आपके लिए भी कितना मुश्किल है जबकि आप जानते हैं कि इस मामले में आप किसी न किसी तरह दोषी तो हैं ही। आपका अहं आपको अपनी गलती स्वीकार करने और पश्चाताप करने या माफ़ी मांगने से रोकता है।
लेकिन यह सिर्फ अफ़सोस ज़ाहिर करने की बात नहीं है! उदाहरण के लिए, अगर आपके मन में अपने कमरे को नए सिरे से सजाने का कोई विचार है या आप साथ मिलकर छुट्टियाँ मनाने का कोई कार्यक्रम बना रहे हैं और इस संबंध में आपका विचार आपके साथी से बिल्कुल मेल नहीं खा पा रहा है तो आप तभी कोई रास्ता निकाल सकते हैं जब आपमें से कोई एक अपने अहं को तिलांजलि देकर सामने वाले की बात मान ले! हालांकि अच्छा हो अगर कोई बीच का रास्ता निकल सके-कोई पर्यटन-स्थल, जो आप दोनों को पसंद हो या घर की कोई सजावट, जो दोनों के मन को भा सके!
आप समझ चुके होंगे कि बात किस ओर इशारा कर रही है: किसी साझेदारी में आपको कोई न कोई साझा पथ खोजना ही पड़ता है। मेरा विश्वास है कि प्यार में किसी न किसी एक को अपने अहं का परित्याग करना चाहिए! अपने आपको सही बताने का और अपनी बात पर अड़े रहने का कोई अर्थ नहीं है और सामने वाले अपने साथी की खुशी में खुश होने का भी अपना अलग आनंद है-भले ही इसके लिए अपने मन को कुछ अलग तरह से तैयार करना पड़े! सफल संबंधों में आप यही चीज़ पाएँगे: दो लोग, जो आपस में चर्चा करते हैं, एक दूसरे की वरीयताओं को जानते-समझते हैं और तदनुसार अपना रास्ता चुनते हैं, जिसमें स्वतंत्रता और आनंद दोनों प्राप्त होते हैं।
मैं एक बार और कहना चाहता हूँ कि यह आसान नहीं है-लेकिन अगर आप प्रेम में मुब्तिला हैं तो मुझे लगता है कि आप इसका उचित बंदोबस्त कर सकते हैं!