आपका देश, आपकी संस्कृति और आपके आसपास का का समाज आपको प्रभावित करते हैं। मुझे लगता है, हम सभी इस बात पर सहमत होंगे। पिछले हफ्ते मैंने बताया था कि कैसे हमारी परवरिश और परिवेश के अनुसार हम सभी का ग्रहणबोध अलग-अलग होता है। क्योंकि यहाँ, आश्रम में विभिन्न देशों के बहुत से लोग आते रहते हैं, हम चीजों और परिस्थितियों को ग्रहण करने के उनके विभिन्न नज़रियों को अक्सर नोटिस करते हैं। और समस्याओं का सामना होने पर उनके व्यवहार में दिखाई देने वाले मूलभूत अंतर को भी। विशेष रूप से यह पहलू मुझे बड़ा रोचक लगता है और मुझे इसका सबसे प्रमुख और निर्णयात्मक असर डालने वाला कारण यह नज़र आता है: आप किसी धनी मुल्क में, संपन्न परिवेश में रहकर बड़े हुए हैं या आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुए देश में!
जब आपके सामने कोई बड़ी समस्या पेश आती है तब आप क्या करते हैं? इसकी कई संभावनाएँ हो सकती हैं-आप घबराकर थर-थर काँपने लगें कि अब क्या होगा और हो सकता है, आप बुरी तरह अवसादग्रस्त हो जाएँ। यह भी हो सकता है कि आप हिम्मत बांधकर, शांत मन से समस्या के बीच से गुज़रते हुए कोई न कोई रास्ता निकाल लें और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करें। कुछ लोग समस्याओं को छिपाने की और उनसे बचकर निकलने की कोशिश और उनकी उपेक्षा करते हैं, उनकी ओर से आँखें मूँद लेते हैं, जैसे समस्या मौजूद ही न हो- लेकिन इससे परिस्थितियाँ कतई ठीक नहीं होतीं।
तो आपकी प्रतिक्रिया के पीछे मुख्य रूप से दो ही भावनाएँ होती हैं: या तो आप डर जाते हैं या नहीं डरते।
और जबकि मैंने बहुत से विभिन्न लोगों में दोनो तरह की प्रवृत्तियाँ देखी हैं, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उन देशों में जहाँ आर्थिक सुरक्षा की स्थिति बेहतर है, जो अधिक विकसित हो चुके हैं और प्रथम विश्व का हिस्सा हैं, वहाँ के लोगों में भयभीत होने की प्रवृत्ति उतनी ही अधिक पाई जाती है।
इसका कारण, हालाँकि बड़ा विचित्र लगता है, परन्तु पर्याप्त समझ में आने वाला है! इन देशों में ज़्यादातर लोग सुख-संपन्नता में जीवन बिताते हैं। उनके लिए कभी भी, जब इच्छा हो या ज़रूरत हो, बाज़ार जाकर सामान खरीद लाना बहुत सहज होता है। संभव है, वे रोज़ माल जाकर नई-नई महंगी चीज़ें न खरीद पाते हों लेकिन सामान्य रूप से किसी के सामने यह परिस्थिति नहीं आती कि वाकई कोई सख्त जरूरत हो और न खरीद सकें और उनके आसपास भी ऐसे लोग बिल्कुल नज़र नहीं आते। यह एक वास्तविकता है कि वहाँ बहुत से लोगों ने कभी कोई नुकसान भी नहीं झेला होता।
और इसीलिए उन लोगों के मन में हर बात में यह प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि ऐसा होने पर न जाने कौन सी मुसीबत आए या ऐसा करूँगा तो पता नहीं उसका क्या नतीजा हो! उनके दिमाग में एक के बाद एक डरावने दृश्य आते रहते हैं और हर वक़्त वे यही सोचते रहते हैं कि भविष्य में क्या होगा और इसलिए उन्हें हमेशा ज़रा सी हलचल पर भी भूचाल का अंदेशा होने लगता है।
उन मुल्कों में जहाँ गरीबी व्याप्त है, लोग हर पल अपने आसपास संघर्ष देखते हैं और इसलिए उन्हें सामान्य परेशानियों और कठिनाइयों का डर नहीं सताता। इसका अर्थ यह नहीं कि वे उन्हें पसंद करते हैं लेकिन वे उन्हें अधिक तर्कसंगत तरीके से देखते-समझते हैं और ज़्यादातर मामलों में उन्हें जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं बना लेते- अर्थात वे सोचते हैं कि, ऐसा हो भी जाए तो भूखों मरने की नौबत तो नहीं आने वाली है! संघर्ष उन्हें सहज रूप से स्वीकार्य होता है और यह संघर्ष उन्हें समस्याओं से पार लगाता है। यह एक ऐसा वैचारिक (भावनात्मक) सुरक्षा-कवच है जो उन्हें सुकून प्रदान करता है।
वास्तविकता समझें: ज़्यादातर समस्याएँ ऐसी नहीं होतीं कि उनसे आपके जीवन में विराम की स्थिति पैदा हो या आपकी दुनिया टूटकर बिखर जाए या आप मौत के मुँह में पहुँच जाएँ। तो भले ही आपकी पृष्ठभूमि आपसे कहती रहे कि इन समस्याओं के सामने आप लाचार हैं, आप इस प्रवृत्ति पर काबू पाएँ और तब आप देखेंगे कि समस्या थी ही नहीं या तब आपको पता चलेगा कि आप उनके बीच से गुजरकर सुरक्षित निकल आए हैं!