कल मैंने बताया था कि पिछले साल मैंने राजनीति के कारण अपने दो पुराने मित्रों को खो दिया। पहले तो मैं विश्वास ही नहीं कर पाया कि ऐसा भी हो सकता है- आखिर, राजनैतिक विचारों से मित्रता अधिक महत्वपूर्ण होनी चाहिए! लेकिन फिर मैंने मामले का गहराई से विश्लेषण किया और मुझे लगा कि मैंने ऐसे व्यवहार का कारण समझ लिया है: भारत की प्राचीन काल से चली आ रही मानव भक्ति (व्यक्ति-पूजा) की परम्परा।
जी हाँ, मैं जानता हूँ कि मानव भक्ति (व्यक्ति-पूजा) भारत के इतिहास और उसकी संस्कृति में रची-बसी है और वह आज भी पूरी तरह मौजूद है। आप उन गुरुओं और साधू-संतों पर नज़र दौड़ाइए, जिनके बारे में मैं अक्सर लिखता रहा हूँ। उन पर बलात्कार और हत्याओं के इलज़ाम होते हैं फिर भी उनके भक्त उनके भक्त उनकी पूजा करते ही रहते हैं। यहाँ तक कि उन्हें जेल की सज़ा हो जाती है और उनके भक्त गण जेल के बाहर बैठे पूजा-अर्चना और भजन कीर्तन करते हैं। लेकिन यह धर्म के अलावा दूसरे नेताओं के साथ भी सामान्य रूप से देखी जाती है: चाहे वे आपके पूर्वज हों, फ़िल्म अभिनेता, गायक या राजनेता हों!
भारत में राजनीति चर्चा का सबसे लोकप्रिय विषय है। जर्मन पत्नी होने के कारण हम लोग आपस में अक्सर जर्मनी और भारत की राजनीति के बीच तुलना किए बगैर नहीं रह पाते: जर्मनी में बहुत कम लोग राजनीति की चर्चा करते हैं और जब करते भी हैं तो निश्चय ही वह भारत जैसी उत्कट नहीं होती। सम्भव है, यह उनके अधिक धीर-गंभीर स्वभाव और फितरत के कारण होता होगा-इसके प्रमाण स्वरूप जर्मनी और भारत में होने वाले संसदीय सत्रों की तुलना करना पर्याप्त होगा-लेकिन सिर्फ यही कारण नहीं है। जर्मनी में किसी राजनैतिक नेता की पूजा होते हुए मैंने नहीं देखा। वे किसी एक को सबसे बेहतर मानते हुए, उसे सबसे अधिक प्रतिभाशाली, सर्वगुणसंपन्न, लाखों में एक मानते हुए, उसके साथ किसी देवता (फरिश्ते या आदर्श) की तरह व्यवहार करते नहीं देखा जैसा कि भारतीय अकसर करते हैं! और निश्चय ही वे राजनीति के कारण अपनी दशकों पुरानी मित्रता नहीं तोड़ेंगे!
मज़ेदार बात यह है कि सिर्फ भक्त ही ऐसा करते नज़र आते हैं-खुद नेताओं का ऐसा खयाल नहीं होता। वे अपने व्यक्तिगत लक्ष्य पर एकाग्र होते हैं और यहाँ तक कि खुद अपनी कही बातों को अपने भक्तों जितना महत्व न देते हुए वही करते हैं जो उन्हें जीवन में आगे ले जा सकता है। यानी उनसे अधिक उनके भक्त उनकी बातों को अधिक महत्व देते हैं। और यही बात मैं राजनैतिक नेताओं के इन भक्तों के सामने स्पष्ट करना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि वे अधिक अच्छी तरह, अधिक ईमानदारी और एकाग्रता के साथ अपने देवता (आदर्श) के पदचिह्नों पर चलें!
अक्सर भारत के चुनाव प्रचार बेहद उत्तेजक, आवेशपूर्ण और कटु होते हैं। दिल्ली विधान सभा के पिछले चुनावों में एक पार्टी के मुख्य मंत्री पद के उम्मीदवार, अरविन्द केजरीवाल के लिए मौजूदा प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने बड़े भद्दे शब्दों का प्रयोग किया, उन्हें खुले आम नक्सली, पाकिस्तानी एजेंट, देशद्रोही और न जाने क्या-क्या कहा गया! हालाँकि, फिर भी वह जीत गए- बल्कि शायद इसीलिए कि लोगों को ऐसा गंदा दुष्प्रचार अच्छा नहीं लगा, विशेष रूप से 'देश के सर्वोच्च नेता' द्वारा किया गया दुष्प्रचार। अब चुनावों के बाद, प्रधानमंत्री ने दिल्ली के नए मुख्यमंत्री को आमंत्रित किया और उसके साथ चाय पीते हुए चित्र को ट्वीट भी किया। क्या आपको आश्चर्य हो रहा है कि वे आपस में गले मिले, साथ में चाय पी और पूर्ण सामंजस्य के साथ भरपूर वक़्त गुज़ारा?
इस व्यक्ति के अनुयायी उसके लिए 20-30 साल की मित्रता और संबंध पल भर में तोड़ देते हैं। ये अनुयायी यह नहीं देख पाते कि उनके नेताओं के लिए यह सब नाटकबाज़ी था! कि पर्दे के पीछे वे सभी एक ही हैं, कि वे इस बात को कोई अहमियत नहीं देते कि पहले उन्होंने क्या कहा या किया था और आज क्या कह या कर रहे हैं!
मैं इन राजनेताओं के सभी भक्तों से अपील करना चाहता हूँ कि कृपा करके अपने संबंधों को इन नेताओं के लिए समाप्त न करें। किसी भी संबंध को, जहाँ प्रेम है और किसी भी ऐसे संबंध को, जिसमें प्रेम के साथ विकसित होने की संभावना है। क्योंकि जीवन में कभी न कभी, किसी न किसी समय आपको किसी और मनुष्य की ज़रुरत पड़ेगी-और उस समय न तो मोदी होगा न ही आपका कोई दूसरा राजनेता! उनके पास आप जैसे लाखों-करोड़ों लोग हैं। आप उन्हें हमेशा पहचानेंगे लेकिन वे न तो आपका चेहरा पहचानेंगे और न ही आपका नाम याद रखेंगे।
हर चुनाव के साथ राजनेता आते-जाते रहते हैं। वास्तविक जीवन में आवश्यकता पड़ने पर मदद के लिए और आपको सहारा देने के लिए आपके मित्र ही मौजूद रहेंगे, मोदी नहीं रहेगा।
इसलिए आप किसी भी तरह के नेता के प्रति कितने भी समर्पित क्यों न हों, अपने इस समर्पण को इस बात की इजाज़त मत दीजिए कि वह आपकी मित्रताओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुँचाने लगे!
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