शहर:
वृन्दावन
देश:
भारत

जब मेरे जर्मन मित्र, जिनके भारतीय विवाह के बारे में मैं पिछले हफ्ते लिख चुका हूँ, 2005 में भारत आए तो उन्हें एक और अनुभव हुआ, जो बड़ा मज़ेदार है और जो भारत आने वाले और भी लोगों के साथ घटित हो सकता है। चलिए, मैं उसके बारे में विस्तार से बताता हूँ।

जब वे हमारे आश्रम आए तो पेशोपेश में पड़ गए। हाल ही में हमने दूसरी मंज़िल का निर्माण करवाया था और कुछ काम अभी भी चल ही रहा था। इमारत का काम अभी जारी था, आने जाने के रास्ते पर मुरुम पड़ी थी और हालांकि दीवारों पर प्लास्टर चढ़ाया जा चुका था, उनमें पुताई का काम होना बाकी था।

उपलब्ध कमरों में से चुनकर उन्हें सबसे बढ़िया कमरा दिया गया था और हालांकि उस वक़्त वह साधारण सा कमरा था, वे वहाँ आराम से रहने लगे। उन्हें वृन्दावन में ही एक पुजारी का भी निमंत्रण था। वह पुजारी पुरानी परंपरा का संगीतकार था, जिसमें हमारे मित्रों की रुचि थी। यह निमंत्रण पाकर वे बहुत सम्मानित महसूस कर रहे थे और उन्होंने मेरे भाई से कहा कि वे उसके यहाँ जाना चाहते हैं। लेकिन यह मुलाक़ात उनकी अपेक्षा से थोड़ा भिन्न रही!

वे वहाँ गए तो उन्हें पता चला कि वह व्यक्ति, संगीतकार, जिससे वे मिलना चाहते थे, घर पर नहीं था। और उनकी अपेक्षा के विपरीत वहाँ संगीत का कोई कार्यक्रम होने वाला है, इसकी कोई हलचल भी नहीं थी। लेकिन पुजारी के परिवार ने उनका स्वागत किया और उनसे उनके यहाँ रुकने का अनुरोध किया। घर की महिला ने उनके लिए भोजन तैयार किया-खास भारतीय खाना और स्वाभाविक ही, बहुत तीखा-और भोजन के दौरान बार-बार अपने द्वारा बनाए गए व्यंजनों को दोबारा लेने का आग्रह करती रहीं। मित्र नम्र थे और जो भी परोसा जाता, खाते रहे और खाना कुछ ज़्यादा ही हो गया। उन्होंने मन में यह भी सोचा कि इन्हें खुश करने के लिए हमने जितना भी संभव था, सब कुछ किया, लेकिन भीतर से नजदीकी का एहसास गायब है। उन्हें महसूस हो रहा था, जैसे वह परिवार उनसे कुछ अपेक्षा कर रहा है और जल्द ही पता भी चल गया कि वे लोग उनसे क्या चाहते हैं: उनकी अपेक्षा थी कि हमारे जर्मन मित्र उनसे दीक्षा ग्रहण कर लें!

सौभाग्य से, इतने अच्छे स्वागत से भी वे इतने प्रभावित नहीं थे कि दीक्षा ही ले लेते! मेरा मित्र पहले भी भारत आ चुका था और इस तरह के अनुभवों से गुज़र चुका था और जानता था कि दीक्षा का अर्थ यह है कि आप गुरु की सेवा करते रहें। गुरु के ज्ञानपूर्ण वचनों पर सिर हिलाते रहें, उसकी सलाह मानें और अपनी आमदनी का एक हिस्सा गुरु के चरणों में अर्पित करें। दीक्षा कई जिम्मेदारियों को जन्म देती हैं और उसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। उन्होंने भरसक नम्रता के साथ उन्हें मना करने की कोशिश की, लेकिन यह भी महसूस किया कि उनके इंकार से माहौल अचानक बदला-बदला नज़र आने लगा है। मेजबान लगभग ज़बरदस्ती पर उतर आए थे और साफ दिखाई देता था कि वे गुस्से में हैं। लेकिन जल्द ही वे समझ गए कि वे हमारे मित्रों का निर्णय बदल नहीं सकते और यह सोचकर उनके मुंह लटक गए।

हमारे मेहमानों को उनका कमरा दिखाया गया-एक बहुत साधारण कमरे में सोने के लिए एक तखत रखा था मगर गद्दा नदारद था। कमरे में मच्छर भिनभिना रहे थे। कमरा दिखाकर उन्होंने मेहमानों से कहा कि वे शाम के पूजा समारोह में आएँ और उसके बाद वहीं से 10 किलोमीटर की पैदल परिक्रमा के लिए भी निकलना होगा। इस परिस्थिति से हमारे मेहमान, स्वाभाविक ही, बहुत खुश नहीं थे।

तो वे इस हालत में मंदिर में बैठे हुए थे, आज्ञाकारी ढंग से, शाम का आयोजन देखते हुए और सोचते हुए कि इस झमेले से कैसे मुक्त हुआ जाए। वे वहाँ एक पल भी रुकना नहीं चाहते थे मगर उन्हें डर था कि उनका इस तरह चले जाना, एक अशिष्ट व्यवहार होगा और उनके मेजबान को बुरा लगेगा!

इसी समय किसी भूत की तरह मंदिर में पूर्णेन्दु अवतरित हुए, शुभ्र सफ़ेद कपड़ों में, काला चश्मा लगाए! वह उनके पास जाकर बैठ गया और उनसे पूछा कि "क्या हाल-चाल है?" प्रश्न सुनते ही सारी कटुता और बेचैनी उनके मुंह से पूरी ताकत के साथ बाहर निकल आई। विस्मित, पूर्णेन्दु ने उनकी ओर देखा और कहा, "अगर आप लोग यहाँ नहीं रहना चाहते तो बिल्कुल मत रहिए। आश्रम वापस चले चलिए!"

पूर्णेन्दु ने पुजारी को बड़ी नम्रता के साथ सारी बात विस्तार से समझाई और इस तरह वे आश्रम वापस आ गए। उसके बाद उन मित्रों को न तो अनपुती दीवारें नज़र आईं और न ही निर्माणाधीन इमारत का रेत-गारा और दिया गया कमरा भी उन्हें अपने बेडरूम की तरह आरामदेह और पुरसुकून महसूस हुआ। उन्हें लगा जैसे वे स्वर्ग में आ गए हों।

इस घटना से यही सीख मिलती है कि आपको अपनी भावनाओं का अनुसरण करना चाहिए, वही करना चाहिए जिससे आपको खुशी मिले-और याद रखें, भारत आपके सामने ऐसे रोमांचक अवसर अक्सर प्रस्तुत करता रहता है!

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