सन् 2006 में अपने यूरोप प्रवास के दौरान मैं बेल्जियम भी गया था, जहाँ मुझे एक कार्यक्रम में बुलाया गया था। हालाँकि कुछ कार्यशालाओं, व्यक्तिगत सत्रों और भाषणों सहित सारा कार्यक्रम सदा की तरह व्यवस्थित रूप से संपन्न हो गया मगर अपने एक व्याख्यान के कारण वह दौरा मुझे हमेशा याद रहेगा।
जब यशेन्दु, हमारा संगीतज्ञ और मैं अपने आयोजकों के घर पहुँचे तो हमारा दिली स्वागत किया गया। हमारी आत्मीय बातचीत हुई और हमें एक-दूसरे को बेहतर तरीके से जानने का मौका मिला। जब हम उनके लिविंग रूम में पहुँचे तो हमने एक पुरुष और महिला का बड़ा सा फ़ोटो दीवार पर टंगा देखा। मैं नहीं जानता था कि वे कौन हैं, उनकी तस्वीर दीवार पर क्यों लगी है और वे अपने वास्तविक जीवन में क्या करते हैं। वह किसी भारतीय गुरु और उसकी पत्नी या किसी महिला गुरु का सम्मिलित चित्र लगता था मगर मैंने आयोजकों से इस विषय में कुछ नहीं पूछा। अगर वे किसी गुरु को अपनाना चाहते थे तो यह उनका अपना निजी मामला था और सिर्फ इसलिए कि मैंने इस विचार से किनारा कर लिया है, मैं उन्हें किसी बात पर सहमत करने की कोशिश नहीं करने वाला था।
जब मेरा नम्बर आया तो मैंने बोलना शुरू किया। मुझे याद नहीं है कि मुझसे किस विषय पर बोलने के लिए कहा गया था मगर इतना याद है कि न जाने कैसे मैंने प्रबोधन या enlightenment के बारे में बताना शुरू कर दिया। स्वीडन में, जहाँ मैं गर्मियों में गया था, मुझे किसी ने ‘दीक्षा आंदोलन’ का ज़िक्र करते हुए बताया था कि कोई गुरु पैसे लेकर लोगों को प्रबोध प्रदान करने का पाठ्यक्रम चला रहा है। मैंने मज़ाकिया लहजे में कहा कि जिसने आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए पैसे खर्च किए होंगे उसने एक तरह की मनी बैक गारंटी ली होगी, जिसे वह कभी क्लेम नहीं करेगा-क्योंकि इतनी बड़ी रकम चुकाने के बाद कौन कहेगा कि उसे ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है।
मैंने उस विचार और उन कार्यशालाओं का मज़ाक उड़ाया और समझाया कि कैसे उस गुरु के शिष्यों ने अपने गुरुओं के लिए पैसा कमाने के उद्देश्य से ‘दीक्षा’ शब्द को ही तोड़-मरोड़कर पेश किया है। उन गुरुओं के लिए, जो इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं।
मैं बिल्कुल नहीं जानता था कि मेरे पीछे दीवार पर टंगे फ़ोटो में ठीक उन्हीं दो गुरुओं की तस्वीरें हैं, जिन्होंने यह आंदोलन शुरू किया है! उन्हें ‘कल्कि भगवान्’ कहा जाता है और उनकी बगल में उनकी पत्नी, ‘अम्मा भगवान्’ का चित्र है मगर उस समय तक मैंने उनका नाम तक नहीं सुना था और न ही उनसे रूबरू मिला था न कोई तस्वीर देखी थी!
वह पूरी तरह संयोग की बात थी और मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि क्या मुझे सुनने वालों में भी ऐसे बहुत से लोग थे, जो मेरी तरह उन्हें नहीं जानते थे या जानते तो थे मगर संयम और शान्ति के साथ मुझे सुनते रहे। जो भी हो, व्याख्यान के बाद एक महिला मेरे पास आई और उस फ़ोटो की तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा, ‘आपको पता है, आप जिस दीक्षा आंदोलन की बात कर रहे थे वह इन दोनों के नेतृत्व में ही चल रहा है!’
यह बड़ा मज़ेदार संयोग था मगर मेरे और मेरे आयोजकों के बीच कोई अप्रिय बात नहीं हुई और हमारे सम्बन्ध वैसे ही बने रहे। यह एक और उदाहरण है कि लोग पूरी तरह भिन्न विचार रखते हुए भी बिना किसी समस्या के अपने सम्बन्ध बनाए रख सकते हैं, बिना किसी विवाद के और एक-दूसरे का सम्मान करते हुए!
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