आज मैं लैंगिक समानता, नारीवाद और हर चीज़ में कोई न कोई नुस्ख निकालने वाले लोगों के रवैये पर अपने विचार लिखने जा रहा हूँ। इसके अलावा मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि इन सब बातों का हमारे आश्रम की रसोई से क्या ताल्लुक है।
आज आश्रम के कुछ मेहमान हमारी आयुर्वेदिक पाक-कार्यशाला में सम्मिलित हुए। सुबह उन्होंने पनीर बनाना सीखने से शुरुआत की और दोपहर में सारे लोग प्रवेश हाल में इकट्ठे बैठकर पालक की पत्तियाँ चुन रहे थे। खुशनुमा माहौल था और तीन महिला कर्मचारियों के अलावा मेरी नानी और हमारे महिला मेहमान साथ बैठे थे। मुझे लगा, यह बड़ा सुंदर दृश्य है और मैंने एक फोटो ले लिया।
जब मैंने उसे फेसबुक पर पोस्ट किया तो बहुत सारे सकारात्मक टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं मगर दो एक जैसी थीं:
"क्या आपके आश्रम में सिर्फ महिलाओं से ही रसोई का काम कराया जाता है?" और "आपकी पिछली पोस्ट्स देखकर मैं आशा कर रही थी कि आपके आश्रम में पुरुष भी खाना बनाने के काम में हिस्सा लेते होंगे!"
निश्चित ही इन दोनों टिप्पणीकारों ने आश्रम संबंधी एक चित्र को, फोटो में कैद एक पल को देखकर यह मान लिया था कि जो महिलाएँ पालक चुन रही हैं, वही सारा भोजन भी तैयार करती होंगी। कि खाना पकाने की सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं के सिर पर डाल दी गई है।
मैंने आश्रम की रसोई का एक दूसरा चित्र, जिसमें बहुत से पुरुष कर्मचारी रोटियाँ बेल और सेंक रहे थे, पोस्ट करके बताने का प्रयत्न किया कि पुरुष भी रसोई में काम करते हैं। मैंने चुटकी लेते हुए कहा कि अब यह चित्र यह विवाद न खड़ा कर दे कि रसोई में महिलाओं का प्रवेश क्यों वर्जित है!
निश्चित ही ये टिप्पणीकार हमारे यहाँ कभी नहीं आए और न तो मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और न ही उन्हें हमारे आश्रम की कार्यप्रणाली की, हमारे कर्मचारियों और मेरे परिवार की रत्ती भर जानकारी है।
जो भी ये फोटो देख रहे हैं, खातिर जमा रखें कि हर क्षेत्र में पुरुष और महिलाएँ दोनों मिल-जुलकर अपने-अपने हिस्से का काम करते हैं! इस समय हमारी रसोई का मुख्य रसोइया पुरुष है। उसके सहायक पुरुष और महिलाएँ, दोनों हैं। सभी सब्जियाँ काटते हैं, बरतनों में सब्जियाँ चलाते हैं और टेबल पर खाना परोसते हैं! हमें इस बात से कोई परेशानी नहीं होगी अगर कल को कोई महिला रसोई की मुखिया बन जाती है! जब मेरी माँ ज़िंदा थीं, वही रसोई का इंतज़ाम देखती थीं और उनके जाने के बाद मेरे भाइयों और मैंने वह ज़िम्मेदारी वहन कर ली है-इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे यहाँ काम करने वाला कोई कर्मचारी महिला है या पुरुष, इतना काफी है कि उसे पता हो कि उसे क्या काम दिया गया है और वह उस काम को अच्छी तरह अंजाम दे!
इसलिए लिंग भेद का प्रश्न मेरे दिमाग से बहुत जल्दी निकल गया क्योंकि मैं जानता हूँ कि हम यहाँ किसी के साथ किसी प्रकार का भेद नहीं करते-लेकिन मेरे मन में उन टिप्पणीकारों की मानसिकता के बारे में कई तरह के खयाल आते-जाते रहे। मैं सोचता हूँ कि जब आप हर बात में किसी नकारात्मकता की तलाश करते हैं तो वह आपके मन को प्रतिबिम्बित करता है। बिना अधिक जानकारी प्राप्त किए आप किसी चीज़ का गलत अर्थ लगा लेते हैं।
कुछ बातों को आप सामान्य रूप से क्यों नहीं ले सकते? क्यों नहीं आप एक रोचक चित्र का आनंद लेकर, उसमें नुस्ख निकालने कि जहमत उठाए बिना उसे जस का तस ग्रहण करते?
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