अरेंज्ड मैरेज यानी शादी मैंने आपसे करी है या पूरे परिवार से!-29 अप्रैल 2013

पिछले हफ्ते मैंने बताया था कि मेरे विचार में भारतीय दंपतियों में इतनी ज़्यादा वैवाहिक समस्याएं इसलिए हैं क्योंकि अधिकतर विवाह आयोजित विवाह (अरेंज्ड मैरेज) होते हैं। युवा लोगों के अपने स्वप्न होते हैं और जब उन्हें अपने जीवन साथी के बारे में पता चलता है कि वह बिल्कुल वैसा नहीं है जैसा उन्होंने अपने सपनों में देखा था तब कई समस्याएं पैदा होने लगती हैं। आम तौर पर वे अपने जीवन साथी के साथ तालमेल बनाए रखने की कोशिश करते हैं और उसमें कामयाब भी होते हैं, लेकिन मुख्य झगड़े तो परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ होते हैं। क्योंकि आम रिवाज यही है कि लड़की अपने पति और उसके परिवार के साथ रहने उनके घर आती है, उसे ही इन सब समस्याओं का सामना करना पड़ता है, खासकर अपनी सास को लेकर।

इस सच्चाई के पीछे कारण है कि पति के साथ होने वाले झगड़ों के मुकाबले परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ होने वाले झगड़े ज़्यादा कटु होते हैं। भारत में तलाक अभी भी आम नहीं हैं। अधिकतर मामलों में पति और पत्नी दोनों जीवन में कभी भी अलग होने के बारे में सोच भी नहीं सकते। वे यही सोचते हैं कि वे शादीशुदा हैं और उन्हें सदा साथ ही रहना है। आयोजित विवाहों के इस बाज़ार में जो मिल गया है उसी के साथ तादात्म्य स्थापित करने के अलावा अधिकांश लोगों के पास कोई विकल्प भी नहीं होता।

इसका अर्थ यह होता है कि पत्नी के आचार-व्यवहार को पति स्वीकार करेगा और पति की राय और विचारों को पत्नी स्वीकार करेगी। इसके अलावा अपने पति के कार्यकलापों में भी उसकी सहमति होगी। अगर वह कोई ऐसी बात करती है जो पति को अच्छी नहीं लगती तो वह उसे ऐसा करने से मना कर सकता है। और अगर वह अपनी बात पर अड़ी रहती है, पति का कहना नहीं मानती तब झगड़े की शुरुआत होती है। कुछ भी हो, अंततः दोनों को यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि इस मामले में दोनों के अलग-अलग विचार हैं। अगर वह घुमा-फिराकर फिर वही बात करती है तो अबकी बार वह कुछ नहीं कहेगा, सोचेगा, ‘छोड़ो, आखिर हमें साथ रहना है’। इसी तरह अगर पति की कोई बात उसे अच्छी नहीं लगती तो वह भी पहले तो प्रतिवाद करेगी, लड़ाई भी होगी मगर अंततः, चाहे पति वही बात बार-बार दोहराता ही क्यों न रहे, उसे स्वीकार करना ही होता है कि ‘क्या किया जाए? आखिर है तो मेरा पति!’

अब परिवार की चर्चा करें। उनके लिए मामला अलग है और फिर ताली दोनों हाथों से बजती है। एक औरत अपने पति की अजीबोगरीब हरकतें और विचार बर्दाश्त कर लेती है मगर हो सकता है कि वह अपने सास-ससुर या देवर की वही बातें बर्दाश्त न करे। अगर उसका पति कोई गलत बात कहता है तो वह कंधे उचकाकर, अपनी नियति को कोसती हुई उसे माफ कर सकती है। मगर यदि देवर या सास वैसी ही कोई बात कहे तो वह इतनी आसानी से उनकी बात नहीं मानेगी। आखिर माने भी क्यों? पति से उसका विवाह हुआ है, सारे परिवार से नहीं! भले ही वह बड़े विवादों से बचने की कोशिश करती रहे, उनसे पैदा हुए छोटे-छोटे कटु अनुभव उसके भीतर दुख और गुस्सा पैदा करते रहते हैं जो धीरे-धीरे इकट्ठा होते रहते हैं और एक न एक दिन फूट पड़ते हैं।

मैंने कहा कि ताली दोनों हाथों से बजती है और यह सच है। कुछ मामलों में पत्नी के मूर्खतापूर्ण रवैये को पति स्वीकार कर सकता है मगर हो सकता है कि परिवार न करे! अगर वह पति को कोई दिल पर लगने वाली बात कहे तो वह तुरंत उसे माफ कर सकता है, भूल सकता है मगर परिवार के दूसरे सदस्यों को वही बात इतनी नागवार गुज़र सकती है कि वे उसे जीवन भर न भूलें। वे ऐसी बातों को याद रखते हैं और गांठ बांध लेते हैं। आगे वे उसकी इन बातों को बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे!

इसका परिणाम बड़ी लड़ाइयों के रूप में सामने आता है जो परिवार के टूटने की सीमा तक भी जा सकता है। कटुता और तनाव इतना बढ़ जाता है कि पति निर्णय करता है कि रोज़-रोज़ की चिकचिक और लड़ाई झगड़ों से बेहतर है घर से अलग हो लिया जाए।

दुर्भाग्य से सम्मिलित परिवारों में आजकल ऐसा बहुतायत से हो रहा है। और आयोजित विवाह ही इसके ज़िम्मेदार हैं। अगर कोई लड़की किसी से प्रेम करती हैं और उसी से उसका विवाह हो जाता है तो वह अपने पति की भावनाओं की बेहतर कद्र करती है और जानती है कि वह भी उसके पति के परिवार से जुड़ गई है। आयोजित विवाह के जरिये उस नए घर में ‘स्थापित’ बहू के मुकाबले उसका पति के परिवार के प्रति व्यवहार बहुत भिन्न होता है। परिवार के सदस्यों के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता-उनका पुत्र या भाई किसी से प्रेम करता है और उसे बहू बनाकर ले आया है तो वे उसके साथ सामंजस्य बनाकर रखने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। मगर यह तभी संभव हो पाता है जब पति के परिवार वालों की मानसिकता आयोजित विवाह की न हो और सद्भाव और प्रेम का वातावरण निर्मित करने की परिवार के सभी सदस्यों की व्यक्तिगत तत्परता और सम्मति हो।

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