पिछले हफ़्ते मैंने भारत में स्त्रियों के खिलाफ़ होने वाले यौन-अपराधों के बारे में, उनके कारणों के बारे में जो मुझे धर्म और संस्कृति दोनों में नज़र आते हैं, और भविष्य में बलात्कार और यौन-उत्पीड़न जैसी घटनाओं को रोकने के लिए किस तरह स्त्रियों के प्रति पुरुषों के रवैयों का बदला जाना ज़रूरी है, इस बारे में लिखा है। मेरे विचार से बदलाव की शुरुआत इस बात से होनी चाहिए कि आप सामान्यतः स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं और ख़ासकर उनके साथ जिन्होंने ऐसे अपराधों को भुगता है।
ऐसा क्यूं होता है कि एक स्त्री जो बस या मेट्रो में अकेली सफ़र कर रही है, अजीब तरह से छूई और घूरी जाती है, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं देती? ऐसा क्यूं होता है कि हर वर्ष बलात्कार के लाखों मामले पुलिस तक पहुंच भी नहीं पाते? इसका कारण है वो ‘कलंक’ जो हमारी संस्कृति इसके साथ जोड़ देती है। सेक्स और इससे संबद्ध कोई भी चीज़ खुली हवा में बहस का विषय नहीं बन पाती, न इसके बारे में बात हो पाती है, न इसके जड़ को पहचानने की कवायद हो पाती है। लड़कियां अपनी मांओं को भी ये बताने में हिचकिचाती हैं कि बस में एक लड़का उसके बिल्कुल पास आ गया या एक आदमी ने भीड़ में उसके साथ छेड़खानी की, उन्हें लगता है यह बताने वाली चीज़ नहीं, इससे कलंक लगता है।
यह एक सामान्य तरीक़ा है कि ऐसे मामलों को समाज का एक बड़ा तबका किस तरह देखता है: आप असल में ग़लत करने वालों के खिलाफ़ ग़ुस्सा नहीं देखेंगे, उल्टा पीड़ित लड़की को अपराधबोध होता है और वो इस बात के लिए कलंकित भी महसूस करती है कि उसके साथ ऐसा हुआ! बदतर मामलों में जब एक लड़की का बलात्कार होता है, तो माना जाता है उसकी इज़्ज़त लुट गई! मैंने इस पर पहले भी लिखा है और इस बात का ज़िक्र किया है कि बलात्कार का हिन्दी में अर्थ ही है "किसी की मर्यादा को लूट लेना"। यह भारत में नियोजित विवाह की अवधारणा में कई दिक़्क़तें पैदा करता है – कौन अपने बेटे का उस लड़की से विवाह करना चाहेगा जिसकी इज़्ज़त लूट ली गई है? ख़राब माल कौन ख़रीदे? ऐसे में, लड़की के परिजन कुछ ग़लत होने पर उसके खिलाफ़ खड़ा होने की बजाय लीपापोती में लग जाते हैं, छुपाते हैं। क्योंकि अगर आप पुलिस के पास जाएंगे, बातें शहर में फैलेंगी, लोग बात करेंगे और लड़की का भविष्य ख़तरे में पड़ जाएगा। तो क्यूं न चुपचाप इस थूक को किसी की भनक लगे बगैर गटक लें और बस ये उम्मीद करें कि गर्भ न ठहर जाए? और अगर गर्भ ठहरता है तो सबको कह दें कि आप दूर गांव में रहने वाली एक चाची के पास जा रही हैं, फिर छुपाकर अवैध रूप से गर्भपात कराएं जिसमें आपकी जान भी दाव पर रहती है। बलात्कार पीड़ित लड़कियां आत्महत्या तक कर लेती हैं- हमने इस बारे में समाचारों में पढ़ा है। वो यह सोचकर अपनी हत्या करने से नहीं चूकती कि उनकी इज़्ज़त तो जा चुकी है, वो कलंकिनी हैं और उनका भविष्य उजड़ चुका है।
तो पीड़ितों के प्रति हमारे समाज का ये रवैया है। बलात्कार पीड़ितों का नाम और उनकी पहचान गोपनीय रखने का प्रावधान है। यह प्रावधान संभवतः इसलिए है कि पीड़ित सुरक्षित महसूस करें, कि वे अन्याय के खिलाफ़ बेखौफ़ होकर आवाज़ उठा सकें लेकिन लोग इसका मतलब कुछ और ही लेते हैं: यह एक ऐसी चीज़ है जिस पर शर्मिंदा होना चाहिए, जिसे छुपाकर रखना चाहिए।
बजाय इसके कि पीड़ित स्त्री को मनोवैज्ञानिक सहायता दी जाए, आस-पास के लोगों से करुणा और हौसला मिले वैसे ही जैसे किसी बुरी दुर्घटना के शिकार हुए एक व्यक्ति को मिलती है, समाज स्त्रियों को वंचित और बहिष्कृत-सा महसूस कराता है। एक पितृ-सत्तात्मक धर्म और संस्कृति में लड़कियां न सिर्फ़ इस तरह से पाली गई हैं कि वो कमज़ोर हो जाएं बल्कि पुरुषों द्वारा किए गए कृत्य का दोष भी उनके मत्थे चढ़ा देने में कोई हिचक न हो।
हालांकि ये अचरज का विषय है भी नहीं: धर्मों के अनुसार स्त्रियों को अपना सिर और यहां तक की चेहरा भी परदे या बुरक़े में छुपाकर रखना चाहिए क्योंकि पुरुष उनका चेहरा देखकर योनि की कल्पना करके उत्तेजित हो जाते हैं। स्त्रियों को तो अपराधियों से बचने के लिए कहा जाता है परन्तु पुरुषों को अपराध न करने के लिए नहीं कहा जाता।
स्त्रियों को मानवजाति के तौर पर देखना शुरू कीजिए। उन्हें वैसे परदों की ओट से बाहर निकालिए जो उन्हें कमज़ोर बनाता है। उन्हें ये सिखाना बंद कीजिए कि वे अबला हैं और उनकी इज्जत उनकी जंघाओं के बीच है! हमें बहुत कुछ बदलना है! ये सिद्धांत की स्त्रियां पुरुषों के अधीन हैं! ये सोच कि स्त्रियां आसान शिकार हैं, कि कौमार्य केवल स्त्रियों का भंग होता है! शर्म और हौसला बढ़ाने वाले हाथों की कमी के कारण अपराधों को छुपाना! अख़बार का पहला पन्ना देखते ही शर्मसार होने से अगर हम बचना चाहते हैं तो हमारे समाज में इन सारे बदलावों का होना ज़रूरी है।