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भारत में महिलाओं के जीवनों में तब्दीली आ रही है लेकिन वहाँ नहीं, जहाँ कि सबसे अधिक ज़रूरत है – 14 जनवरी 2016

कल मैंने बताया था कि कैसे पुरानी परंपराएँ समाज के ताज़ा बुरे हालात का कारण हैं। जैसे, विवाह के बाद परिवार और दूसरे बहुत से लोगों का महिलाओं पर जल्द से जल्द बच्चे पैदा करने का दबाव। कुछ पाठक मेरी बात से सहमत थे लेकिन उन्होंने भी जोड़ा, ‘हालात बदल रहे हैं।’ मैं भी मानता हूँ, मगर एक हद तक ही!

सर्वप्रथम, उन जगहों पर गौर करें जहाँ वास्तव में परिवर्तन हो रहा है: महानगरों में निश्चय ही सबसे पहले परिवर्तन नज़र आता है। इन जगहों में महिलाएँ कोई न कोई काम करती हैं, वहाँ लड़कों की तरह लड़कियाँ भी पढ़ने स्कूल जाती हैं और वहाँ कामकाजी महिलाओं के लिए डे-केयर सेंटर्स उपलब्ध हैं, जहाँ वे काम पर जाते हुए बच्चों को छोड़ सकती हैं। इत्यादि, इत्यादि।

लेकिन मैं कुछ बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ: पहली यह कि वह भारत की आबादी का बहुत छोटा सा हिस्सा है। दूसरे, वहाँ भी इस मसले पर मानसिकता में उतना परिवर्तन नहीं हुआ है जितना हम सोचते हैं कि हुआ है!

हाँ, दिल्ली, मुम्बई और दूसरे बड़े शहरों में महिलाओं की हालत में परिवर्तन हुआ है। अभिभावक उन्हें काफी आज़ादी देते हैं और अब गाँव की लड़कियों की तुलना में वहाँ लड़कियाँ जीवन को पूर्णतः अलग तरीके से जानने-समझने के लिए स्वतंत्र हैं।

इस तथ्य के अलावा कि स्पष्ट ही वह देश की कुल जनसंख्या का एक छोटा सा हिस्सा है, वहाँ भी महिलाओं के लिए जीवन अन्यायपूर्ण ही बना हुआ है क्योंकि वहाँ भी अभिभावकों, रिश्तेदारों और सामान्य रूप से सारे समाज में ही परंपराओं को अब भी ऊँची प्राथमिकता प्राप्त है! जबकि लड़के स्वतंत्रता पूर्वक कहीं भी घूम-फिर सकते हैं, लड़कियों को समाज के सुरक्षा घेरे में बंद रहना होता है, जो उन्हें सुरक्षा तो प्रदान करता है मगर उन्हें एकाकी भी कर देता है। उन्हें किसी लड़के के साथ घूमने-फिरने की आज़ादी नहीं होती और अगर होती भी है तो अभिभावक इस पर गहरी नज़र रखते हैं कि वे किसके साथ मिल-जुल रही हैं। देर रात तक बाहर रहना वर्जित है, रात को अगर बाहर रुकना ही है तो सिर्फ अपनी सबसे पक्की सहेली के यहाँ भर सोने की आज़ादी मिल सकती है, वह भी तब, जब अभिभावक भी उस सहेली के माता-पिता को अच्छी तरह जानते हों कि वे सभ्य लोग हैं। इसके अलावा, हर समय उसे अपनी खबर देनी आवश्यक हैं कि वह कहाँ जा रही है।

यह स्वतंत्रता का मिथ्या दिखावा है। विज्ञापन है, पूरी फिल्म नहीं। ज़्यादातर प्रकरणों में अभी भी विवाह का समय आते-आते उसका अंत हो जाता है और तब लड़की को, पढ़ी-लिखी और नौकरी करने वाली लड़की को, पति और परिवार की इच्छाओं और अपेक्षाओं के सामने घुटने टेकने की सलाह दी जाती है। क्योंकि यही परंपरा है और यह परंपरा अभी टूटी नहीं है! ‘पति का आदर करो’ का अर्थ है, जैसा वह कहे, करो!

और इस दृष्टिकोण से देखें तो पता चलता है कि अपेक्षाएँ वही पुरानी हैं, आगे की प्रक्रिया भी वही है और दबाव, दुख और आँसू भी वही हैं। इसलिए नहीं, अभी भी बड़े शहर भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं, वे भी उन परंपरागत समस्याओं का अंत नहीं कर सके हैं-असलियत यह है कि इसके चलते कुछ दूसरी समस्याओं ने जन्म ले लिया है, जिन पर, संभव हुआ तो, मैं अगले हफ्ते चर्चा करूँगा।

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