आज मुझे अपने ज़ख्म (घुटने) के टाँके निकलवाने अस्पताल जाना है। मैं अब काफी स्वस्थ हो चुका हूँ मगर मुझे इस बात की विशेष ख़ुशी है कि जर्मनी के लिए उड़ान भरने से पहले मुझे अपने आप को तैयार करने के लिए दस दिन का अवकाश और मिल जाएगा। आज मैं जिस स्थिति में हूँ, उसमें अनायास ही मुझे यह विचार करने का मौका मिला है कि जब आप घायल या बीमार होते हैं तो आपकी दिमागी हालत का उस पर बड़ा प्रभाव पड़ता है: आप चाहें तो उस बीमारी या तकलीफ का मज़ा लेते रह सकते हैं या जितना चाहें स्वस्थ महसूस कर सकते हैं।
अपने सलाह-सत्रों की वजह से मुझे कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिलता रहता है, जिन्हें बीमार पड़ना अच्छा लगता है। अपने सलाह सत्र की शुरुआत ही वे अपने बीमार पड़ने की कहानी से करते हैं। कोई बड़ी बीमारी नहीं होती मगर जब वे दूसरों से बार-बार उसका ज़िक्र करते हैं तो वे सहानुभूति व्यक्त करने लगते हैं-जो स्वाभाविक ही, उन्हें बहुत अच्छी लगती है। धीरे-धीरे, अगली बार बीमार पड़ने तक या उनकी तकलीफ कुछ ज़्यादा समय तक बनी रहे तो वे समझ जाते हैं कि बहुत सी चीज़ों के लिए यह बहाना बहुत कारगर सिद्ध होता है। और बिना अशिष्ट दिखाई दिए ‘नहीं’ कहने के मामले में यह सबसे अधिक उपयोगी होता है।
उनमें आत्मविश्वास की कमी होती हैं और साफ मना करने की जगह कि वे उनसे कहा गया काम नहीं करना चाहते, वे कहते हैं कि बीमार हैं इसलिए वे यह काम नहीं कर पाएंगे। यह पूरी तरह सही न भी हो कि उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है तो भी काम टालने का यह आसान तरीका होता है और दूसरों को उनकी बात पर भरोसा करना ही पड़ता है। वह काम वे नहीं करना चाहते, यह सच कहने के लिए उन्हें अपने आत्मविश्वास और शक्ति का प्रदर्शन नहीं करना पड़ता।
तो वे बीमार बने रहते हैं। भले ही वे पूरी तरह स्वस्थ और ठीक-ठाक हों या उन्हें कोई छोटी मोटी, मामूली तकलीफ हो मगर वे जिद पकड़ लेंगे कि वे बीमार हैं। जितनी तकलीफ है, उससे कहीं ज़्यादा गंभीर रूप से बीमार! यह आवश्यक नहीं कि वे जानते हों कि वे क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं। उनका अवचेतन इतना शक्तिशाली होता है कि वे सचाई को अपने आपसे छिपा लेते हैं और इस तरह छिपाते हैं कि वह झूठ उन्हें अच्छा लगने लगता है। वे हर तरह से अपने आपको विश्वास दिला देते हैं कि वाकई वे बीमार हैं और परिणाम यह होता है कि वे उसी तरह व्यवहार करने लगते हैं।
एक बार उस राह पर चल पड़े तो फिर वे अपनी बीमारी से इतना प्यार करने लगते हैं कि उनके लिए उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। उन्हें इस बात का ज़रा सा भी गुमान नहीं होता कि लोग उनका नाटक समझ रहे हैं, दूसरे यह जान रहे हैं कि वे ज़रुरत से ज़्यादा बन रहे हैं मगर वे भी इसका मज़ा लेने लगते हैं। मित्र उन्हें दिलासा देने लगते हैं कि सब ठीक हो जाएगा। लेकिन इससे बहुत नुकसान होता है और इसी बिंदु पर लोग मेरे पास सलाह लेने आते हैं।
अधिकतर मैं उन्हें स्वस्थ जीवन के आनंद को अनुभव करने की सलाह देता हूँ। मैं उनसे यह नहीं कहता कि वे बिल्कुल बीमार नहीं हैं-सत्र कुछ देर का होता है और इतने कम समय में मैं कैसे जान सकता हूँ उन्हें क्या हुआ है? लेकिन मेरा कहना है कि आप वाकई बीमार हों तब भी जितना संभव ही, भले-चंगे होने का नाटक कीजिए। नियमित जीवन बिताइए, बीमारी से पैदा असुविधाओं के साथ जीने के नए तरीके ढूँढ़िए और सामान्य जीवन जीने की कोशिश कीजिए। अपनी बीमारी के पीछे छिपने और उसकी आड़ में ‘न’ कहने की अपेक्षा सीधे ‘नहीं’ कहने की आदत डालिए। जो हैं, वही बने रहिए और जीवन का आनंद लीजिए!
इन दिनों भी मैं सिर्फ बिस्तर पर लेटा नहीं रहता: मैं अपनी फिजियोथेरपी के व्यायाम करता रहा हूँ, अपरा के साथ खेलता रहा हूँ, फोन पर बात करता रहा हूँ और कम्प्यूटर पर काम करता रहा हूँ। मेरे ये दिन भी सामान्य दिनों की तरह ही गुज़र रहे हैं, बस थोड़ी गतिशीलता और गतिविधियाँ कम हो गई है। सामान्य रूप से जो कुछ मैं करता रहा हूँ वह सब बिस्तर पर बैठे-बैठे, अब भी कर रहा हूँ। बिस्तर पर बीमार पड़े रहना मुझे बिल्कुल नहीं सुहाता इसलिए मैं इस बात को बिल्कुल महत्व नहीं देता। जितना काम कर सकता हूँ, करता रहता हूँ- और मुझे लगता है कि इस बात ने भी मुझे तेज़ी के साथ स्वस्थ होने में मदद की है।
अब देखना यह है कि आज डॉक्टर क्या कहते हैं-लेकिन मुझे लगता है कि मैं दस दिन में इतना स्वस्थ हो जाऊंगा कि आराम से जर्मनी के लिए रवाना हो सकता हूँ!