नेत्र विशेषज्ञ के साथ अपनी मुलाक़ात के बारे में लिखते हुए कल मेरे दिमाग में ऐसी ही और भी कई मुलाकातों की यादें दस्तक देने लगीं जिसमें विभिन्न डॉक्टरों के साथ मेरे, मेरे परिवार वालों और दोस्तों के अनुभव शामिल हैं। ऐसे डॉक्टरों के गैर पेशेवराना व्यवहार के बारे में जब मैंने गंभीरता से सोचा तो मुझे वह कतई स्वीकार योग्य नहीं लगा।
यहाँ मैं फिर यह बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं भारत में ही कई अच्छे डॉक्टरों से भी मिला हूँ जो अपना काम पूरी पेशेवराना लगन और कुशलता के साथ करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश डॉक्टर ऐसे नहीं हैं, खासकर छोटे कस्बों और गावों में, और मैं उन्हीं के बारे में लिखना चाहता हूँ। मेरे पास खुद मेरे और दूसरों से सुने हुए इतने सारे अनुभव हैं कि मैं कई दिन तक अपने ब्लॉग में इन्हीं कि बारे में लिखता रह सकता हूँ इसलिए इन अनुभवों के बारे में एक सामान्य जानकारी देकर मैं अपनी बात समाप्त कर दुंगा।
आप डॉक्टर के यहाँ जाते हैं तो प्रवेश-द्वार पर ही आपसे एक सामान्य फीस जमा करके हाल में अपनी बारी का इंतज़ार करने के लिए कहा जाता है। सामान्यतः, एक सहायक आपको डॉक्टरी जांच और परामर्श के लिए अंदर बुलाता है। आप अंदर प्रवेश करते हैं तो पाते हैं कि वहाँ डॉक्टर के बिलकुल करीब बैठा एक दूसरा मरीज अपनी जांच करवा रहा है। आपसे कहा जाता है कि आप थोड़ा पीछे बैठ जाएँ जहां से डॉक्टर और मरीज के बीच चल रही बातचीत आप साफ-साफ सुन सकते हैं। कतार में अगले मरीज आप ही हैं और जाहिर है आपके बाद वाला मरीज भी आने ही वाला है और डॉक्टर के साथ होने वाली आपकी बातचीत को सुनने वाला है।
गोपनीयता की यह अवहेलना कई लोगों को अखर सकती है मगर भारत में यह एक आम चलन है और यहाँ इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरी नज़र में मुख्य समस्या डॉक्टर के व्यवहार को लेकर है। मैं कई डॉक्टरों के पास गया हूँ जो मुझसे अपनी समस्या बताने के लिए कहते हैं और जब मैं बताने लगता हूँ तो ठीक से सुनते नहीं हैं। यहाँ तक कि मैंने देखा है कि वे अपना मोबाइल लेकर बात करने लगेंगे या एसएमएस टाइप करने लगेंगे। कोई नहीं कह सकता कि उसने मेरी बात सुनी भी है, समझने की बात ही छोड़िये। यह बिल्कुल असंभव है कि आप एक साथ किसी की बात भी सुन लें और एसएमएस करके अपने मित्र को बताएं कि आपको आने में देर हो सकती है!
मैंने कई डॉक्टरों को देखा है जो मरीज की बातचीत के बीच अपने बजते हुए मोबाइल को उठाकर बात करना शुरू कर देते हैं। एक तरफ मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि पश्चिम में ऐसा कभी नहीं हो सकता और मैं यह भी मानता हूँ कि ऐसा करना शिष्टाचार के विरुद्ध है तो दूसरी तरफ मुझे लगता है कि भारतीय डॉक्टर इमर्जन्सी काल्स खुद उठाते हैं और कई बार अपोइंटमेंट भी खुद ही तय करते हैं और इस तरह फोन उठाने की कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ भी अपने सर पर ले लेते हैं।
अगर हम उनकी अक्षमता और चिकित्सकीय ज्ञान की कमी को छोड़ भी दें तो भी मेरी नज़र में सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहाँ के डॉक्टर अपने मरीजों को यह भी नहीं बताते कि उन्हें बीमारी क्या है और वे उनका क्या इलाज कर रहे हैं। वे मरीज की शिकायत सुनते हैं, फौजी तरीके से कुछ प्रश्न पूछते हैं, जैसे गोलियां दाग रहे हों, आँख में झाँककर देखते हैं, जीभ भी देख लेते हैं कभी कभी और बस, पर्चा लिखना शुरू कर देते हैं और दवाई खरीदकर उन्हें कैसे और कब-कब लेना है यह बताते हैं, वह भी इतनी हड़बड़ी में कि मरीज को बाहर आकर किसी से दोबारा पूछना पड़ता है। वे मरीज को कभी नहीं बताते कि उन्हें क्या बीमारी है और वे उनका क्या इलाज कर रहे हैं। इतना भर कहते हैं कि एक हफ्ते या दो हफ्ते बाद दोबारा आकर दिखा जाना, यह नहीं बताते कि ये दवाइयाँ लेने के बाद मरीज के रोग में कितने दिनों बाद क्या कमी आएगी, या उसके लक्षणों में क्या परिवर्तन आ सकते हैं।
जहां मैं यह समझता हूँ कि मरीजों के साथ उनके इस व्यवहार को अनुचित ही कहा जाएगा वहीं मैं इन डॉक्टरों के पक्ष में भी एक बात कहना चाहूँगा। ऐसा नहीं है कि भारतीय डॉक्टर कम पढे-लिखे या अयोग्य होते हैं बल्कि अपनी पढ़ाई के वक्त ही उन्हें एक साथ बहुत से मरीजों को देखने का प्रशिक्षण दिया जाता है। स्वाभाविक ही हर मरीज के साथ बात करने का उनके पास वक़्त ही नहीं होता और भारत में, विशेष कर गावों से आए हुए, अधिकांश मरीज ऐसे होते हैं जिन्हें यह भी पता नहीं होता कि उनके शरीर में कौन सा अंग कहाँ हैं। इस तरह अगर डॉक्टर हर मरीज से बहुत सारी बातें कर भी ले तो मरीज समझ ही नहीं पाएगा और न उसे इन सब बातों से मतलब ही होता है।
मैं मानता हूँ कि अपने कई सालों के अनुभवों के बाद डॉक्टर मरीजों के साथ कम से कम बात करना उचित समझते हैं क्योंकि उन बातों से मरीजों को कोई मतलब नहीं होता और न ही वे उन जानकारियों का कोई उचित उपयोग करने में सक्षम होते हैं। फिर भी मैं यही कहूँगा कि उनका यह व्यवहार गलत है क्योंकि इससे मरीज को ऐसा प्रतीत होता है कि डॉक्टर उनकी समस्या पर गौर ही नहीं कर रहा है और उन्हें सिर्फ “निपटा” रहा है जैसे कोई नीरस काम कर रहा हो। ऊपर से, ऐसा करने पर डॉक्टर अपने मरीज से रोग के निदान संबंधी महत्वपूर्ण जानकारियाँ, जिन्हें मरीज को जानने का पूरा-पूरा हक है, छिपाने का दोषी भी साबित होता है। और इससे हर पढ़ा-लिखा मरीज यही समझेगा कि या तो आप उसके साथ अपमानजनक व्यवहार कर रहे हैं या फिर आप अपना काम नहीं जानते।
इसलिए, प्रिय डॉक्टरों, अपना व्यवहार सुधारें। अपने मरीजों में रुचि लें, अपना सरोकार दर्शाएँ कि आपको उनकी फिक्र है और अपने ज्ञान को थोड़ा-थोड़ा अपने मरीज तक भी पहुँचने दें। थोड़ी सी जानकारी के कुछ वाक्य भी एक मरीज के लिए बहुत बड़ी ताकत होते हैं। वे भी जानना चाहते हैं कि आखिर उन्हें हुआ क्या है और उनका इलाज ठीक तरह से चल रहा है या नहीं।