आज गुरु-पूर्णिमा है, जिसे आचार्य दिवस भी कहा जा सकता है। इस दिन हर शिष्य अपने गुरु का सम्मान करता है। सारा साल भले ही वह उसे भूला हुआ हो, आज के दिन वह गुरु के पास अवश्य आएगा, गुरु के पाँव पखारेगा, उसके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करेगा और उसे दक्षिणा के रूप में कुछ धन अर्पित करेगा। अगर वह बहुत दूर रह रहा है तो वह उससे फोन पर बात करेगा और उनसे आशीर्वाद लेगा। मैं खुद भी बहुत समय तक गुरु की भूमिका में रहा हूँ और इस स्थिति से वाकिफ हूँ। मैं अब बदल चुका हूँ, इतना बदल चुका हूँ कि जिस बात की मैं सालों पहले खुद अनुशंसा किया करता था उसी का आज मैं कड़ाई के साथ विरोध करता हूँ। इसके साथ ही गुरुवाद के इस चलन का भी।
मैं धर्म-ग्रन्थों में लिखी बातों पर भरोसा किया करता था और उसी का उपदेश देते हुए उसका प्रचार-प्रसार करता था। वह यह कि: "गुरु के बिना आपकी मुक्ति नहीं है। मुक्ति ही मनुष्यमात्र का लक्ष्य होना चाहिए और मुक्ति प्राप्त करने के लिए उसे जीवन भर प्रयास करते रहना चाहिए-इसलिए हर एक को चाहिए कि पहले वह एक ऐसे गुरु की तलाश करे जो उसे मुक्ति दे सकता है।"
आज मैं महसूस करता हूँ कि लोगों की यही हालत इस क्षेत्र में होने वाले भ्रष्टाचार की जड़ है। भोले भाले, मासूम लोग उनके पास आते हैं और उन्हें तीन बातें सिखाई जाती हैं:
1) आपको मुक्ति तभी मिलेगी जब आप किसी को गुरु बना लें।
2) जैसे आपके एक ही पिता हो सकते हैं उसी तरह आप जीवन में सिर्फ एक ही व्यक्ति को गुरु बना सकते हैं।
3) आपको अपना सर्वस्व गुरु को समर्पित करना होगा। वह आपकी सारी ज़िम्मेदारी वहन करेगा और बदले में आपको वही करना होगा जो उसका आदेश हो।
जिस पल आप अपने गुरु से दीक्षा ग्रहण करते हैं, आप अपने सारे कर्मकांड उसे अर्पित कर देते हैं। आप उसकी सलाह पर चलते हैं और अपनी प्रार्थनाएँ, मन ही मन, उसके साथ ही करते हैं। उसके इस दावे पर
कि वह आपको इस मृग-माया से निकालकर मुक्ति दिलाएगा, आप अपनी सहमति से और खुशी-खुशी उसकी कठपुतली बनने के लिए तैयार हो जाते हैं। स्वाभाविक ही गुरु इसे और इसके साथ आने वाली हर चीज को पसंद करते हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि गुरु से दीक्षा लेना अनिवार्य है। अपने शिष्यों को अपने साथ बनाए रखने के लिए वे इस नियम का प्रचार करते हैं कि किसी भी शिष्य का एक ही गुरु हो सकता है।
यह पूरी व्यवस्था ही मेरे विचार में, दुरुपयोग तथा शोषण करने के इरादे से ही बनाई गई है और यही कई दशकों से, बल्कि सदियों से हो रहा है। ये गुरु अपने शिष्यों के मस्तिष्क पर पूरा अधिकार रखते हैं और वे जान-बूझकर दौलत पाने और न सिर्फ अपने शारीरिक सुख बल्कि अपनी स्वैर, अप्राकृतिक यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी उनका दुरुपयोग करते हैं। वहाँ होने वाले कृत्य बेहद अनैतिक और समाजविरोधी होते है।
मेरे विचार में गुरु महज एक शिक्षक होता है, जो कि उसका शाब्दिक अर्थ भी है। अगर आप कुछ सीखना चाहते हैं तो आपको गुरु की आवश्यकता पड़ती है। जब मैं स्कूल जाता था तो कक्षा के सारे बच्चे शिक्षकों को आदर के साथ ‘गुरुजी’ कहा करते थे। इस बात से कोई मतलब नहीं होता था कि वह व्यक्ति कौन है। कोई भी, जिससे आप कुछ सीखते हैं, आपका गुरु हो सकता है, भले ही वह आपसे उम्र में छोटा ही क्यों न हो। और इस तरह आपके कई गुरु हो सकते हैं, जो भी आपको शिक्षा प्रदान करता है।
किसी की कठपुतली मत बनिए। जिससे भी आप कुछ सीखते हैं उसे आप आदरपूर्वक शिक्षक का दर्जा दे सकते हैं। लेकिन किसी एक व्यक्ति पर पूरी तरह निर्भर न रहिए। अपने संबंध को सिर्फ शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध ही बना रहने दें और उसमें किसी दैवत्व के पहलू को जगह न दें।
लोग यह तर्क कर सकते हैं कि अगर आप धर्मग्रंथों और धार्मिक दर्शन का अध्ययन करना चाहते हैं तो आपको एक आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु की आवश्यकता हो सकती है। मैंने अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा इसी काम में खर्च किया है। आज मैं आपसे पूछना चाहता हूँ: आखिर आप क्यों इस धार्मिक दर्शन का अध्ययन करना चाहते हैं? मेरे विचार में यह बिलकुल व्यर्थ है। आप एक ईमानदार और सुखपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं। इसके लिए वेदों, कुरान या बाइबल की आपको कहाँ आवश्यकता है? उन्हें पढ़कर आप अपने ज्ञान के क्षितिज को सीमित कर लेंगे, अपने रास्ते को संकरा कर लेंगे और संदेहग्रस्त हो जाएंगे। तो अगर आपको ऐसे दर्शन की आवश्यकता ही नहीं है तो फिर धार्मिक गुरु की आवश्यकता क्यों होगी?
अपने गुरु आप खुद बनिए। आपका प्रेम, आपकी सहज विनम्रता और नैतिकता आपकी गुरु है। यही चीज़ें आपको सही रास्ता दिखाएंगी। बस, उन्हें वैसा करने आज़ादी दे दीजिए।
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