कल मैंने उन जिम्मेदारियों के बारे में लिखा था जो एक लेखक और पाठक, दोनों पर, आयद होती हैं और यह भी कि अपने जीवन और अपने कर्मों की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी उन्हें उठानी ही चाहिए। हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए और उन्हें अपने कंधों पर उठाने का साहस होना चाहिए। इस बात पर सभी सहमत होंगे कि ऐसा ही होना चाहिए मगर हिन्दू धर्म और प्रचलित गुरुवाद, दुर्भाग्य से, कुछ दूसरी ही बात सिखाते हैं: आप अपनी सारी जिम्मेदारियों का बोझ अपने गुरु पर डाल सकते हैं और आपको ऐसा करना भी चाहिए।
जी हाँ, यही सब बड़े से बड़े धर्मग्रंथों में लिखा हुआ है और यही सब कुछ सैकड़ों सालों से गुरुओं का उपदेश रहा है जिसे उनके शिष्य निष्पादित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसके पीछे का विचार यह है कि आप अपने आपको पूरी तरह गुरु के चरणों में निछावर कर दें। अपने साथ आप अपने बुरे कर्मों को और अपने अच्छे कर्मों को भी गुरु को समर्पित कर दें और अपने लिए बिना किसी अपेक्षा के जैसा गुरु कहता है वैसा करते चले जाएँ। फिर आप उस स्थिति को प्राप्त हो जाएंगे जहां आपके सारे कर्म आपके नहीं रह जाएंगे और इस तरह मृत्यु के बाद आपको स्वर्ग प्राप्त हो जाएगा।
यही वह आधार है जिस पर सारे गुरुवाद की इमारत खड़ी है। गुरु लोगों का आह्वान करते हैं: आओ, अपने सारे कर्म मुझे सौंप दो, वही करो जिसके लिए मैं तुम्हें प्रेरित कर रहा हूँ और फिर तुम्हें इस जीवन की, यहाँ तक कि उसके बाद की भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। अपने आप को समर्पित कर दो, निछावर कर दो, तुम्हारे इस जन्म की और अगले जन्मों की भी चिंता मैं करूंगा।
कितना आकर्षक विचार है! किसी भोले-भाले, साधारण धर्मभीरु व्यक्ति के लिए यह एक ललचाने वाला प्रस्ताव है! हर हिन्दू जो ऐसे धार्मिक वातावरण में बड़ा हुआ है यह विश्वास कर सकता है कि यही एकमात्र उचित राह है। कोई भी इसके मोहक स्वरों को समझ सकता है: मेरी नौका में सवार हो जाओ, मैं तुम्हें उस पार पहुंचा दूँगा! तुम्हें सोचने की, चिंता करने की ज़रूरत नहीं, तुम वहाँ सुरक्षित पहुँच जाओगे। तुम नौका को हिला नहीं सकते, लहरों के तेज़ थपेड़े तुम्हें डिगा नहीं सकेंगे, डूबने की तो कोई संभावना ही नहीं- यहाँ तक कि तुम गीले तक नहीं होगे!
वे समर्पण कर देते हैं। यह बहुत आसान है और यह समाज में अच्छा भी माना जाता है! यह घोषणा करते हुए वे गर्व से भर उठते हैं: "मैंने सर्वस्व परित्याग किया है, मैं उपासना में लीन हो गया हूँ, मैं भक्त हूँ और सिर्फ वही करता हूँ जो मेरे गुरु की वाणी मुझसे करवाती है। मैं कुछ भी नहीं हूँ।" यह विनम्रता ही उनसे अपेक्षित है। उनसे कहा गया है कि ‘अपने अहं को खत्म करो’ अन्यथा गुरु आपकी ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता। आपके कर्मों कि ज़िम्मेदारी वह तभी लेगा जब आपके कर्मों पर उसका अधिकार होगा।
लेकिन गुरु की इस सेवा के बदले आपको एक निश्चित फीस भी अदा करनी होगी। कुछ गुरु सीधे यह फीस वसूल नहीं करते। कुछ बैंक की तरह होते हैं जहां कुछ विशिष्ट सेवाओं के लिए आपका एक तरह का बीमा किया जाता है। लेकिन आपको भुगतान करना अवश्य पड़ता है, सीधे सीधे या फिर किसी और माध्यम से।
ये गुरु आपकी इस मनोवृत्ति का लाभ सिर्फ मोटी रकम वसूल करके ही नहीं उठाते। उनके कई शिष्य इतने समर्पित होते हैं कि वे उनकी ज़बान खुलते ही उनके लिए कुछ भी कर सकते हैं। उनके शिष्यों द्वारा प्रदत्त यह शक्ति उनके लिए यौन शोषण की राह भी खोल देती है। पहले शिष्य रहीं कुछ महिलाओं ने मुझे बताया कि वे तो अपने गुरु को भगवान ही समझती थीं। उन्होंने अपने आपको पूरी तरह समर्पित कर दिया था, इस विश्वास के साथ कि गुरु के आदेश का पालन करने पर वे उनके माध्यम से पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी। जब उनसे कहा गया कि गुरु की सेवा हेतु उनके बेडरूम में जाओ, उनके जननांगों का मर्दन करो और यहाँ तक कि उनके साथ संभोग करो तो उनमें से बहुत सी इंकार नहीं कर सकीं। ऐसे कई प्रकरण हैं जहां गुरुओं ने अपनी शिष्याओं का इस तरह शोषण किया क्योंकि वे अपने भोलेपन में यह सोचती थीं कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
इस तरह आप देखते हैं कि अपनी ज़िम्मेदारी स्वयं न उठाकर उन्हें किसी और को सौंपने का आसान रास्ता अख्तियार करके आप कहाँ पहुँच सकते हैं। यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। अपनी ज़िम्मेदारी स्वयं उठाओ, अपने कर्मों और उनसे उपजे परिणामों की पूरी ज़िम्मेदारी आपकी है। समझिए कि जीवन का आनंद उठाने के लिए किसी गुरु की आपको कोई आवश्यकता नहीं है।