कल गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में अवकाश था और मैंने गुरुओं, उनकी दीक्षाओं और उनके शिष्यों के बारे में लिखना शुरू किया। परंपरा यह थी कि गुरु बहुत कम संख्या में शिष्यों को दीक्षित किया करते थे। उसके अपने हर शिष्य के साथ अलग अलग संबंध होते थे। वे सभी एक साथ 'गुरुकुल' में रहते थे, जहां वे एक परिवार की तरह सभी चीजों को साझा करते थे और विद्या ग्रहण करते थे। कुछ समय बाद शिष्य अपनी मर्ज़ी के अनुसार कोई दूसरा काम करने चल देता था, जिससे दूसरे शिष्यों के लिए स्थान रिक्त हो सके। लेकिन वह विभिन्न अवसरों पर अपने गुरु के पास वापस लौटता थे: जैसे किसी विषय पर सलाह लेने, उसका अभिवादन करने, आशीर्वाद लेने या फिर गुरु पूर्णिमा के दिन, उसका सम्मान करने।
आजकल यह सब कुछ बदला-बदला सा लगता है। सबसे बड़ा फर्क यह है कि आज के गुरु बहुत प्रतिष्ठित और लोकप्रिय होते हैं, जो फिल्म स्टारों की तरह जीवन जीते हैं। वे स्टेज पर प्रस्तुत होकर प्रवचन करते हैं, अपने कार्यक्रम करते हैं, जहां हजारों की संख्या में उनके शिष्यगण उनके दर्शन के लिए घंटों इंतज़ार करते रहते हैं, जैसा कि अक्सर फिल्म स्टारों के साथ होता है। उनके दौरों के लिए टूर-बसें होती हैं जिनमे बैठकर वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करने जाते हैं। लोगों से पैसा उगाहने के लिए उनके कार्यक्रमों में प्रवेश शुल्क के स्थान पर कई तरह के दूसरे तरीके अपनाए जाते हैं। वे विभिन्न कर्मकांडों के जरिये, दान दक्षिणा के ज़रिये और अपनें विभिन्न धार्मिक उत्पादों की बिक्री के जरिये भी वे धन प्राप्त करते हैं। जहां भी वे जाते हैं, विशाल जनसमूह उनके आगमन का इंतज़ार करता है और अगर आप किसी तरह उसके पास पहुँच सकें और वह आपसे व्यक्तिगत रूप से कुछ कह दे तो यह बड़े सम्मान की बात होती है।
यह संभव नहीं होता कि वह व्यक्तिगत रूप से अपने हर भक्त को पारंपरिक विधि-विधान के साथ दीक्षित करे-वे अपने हर भक्त से मुलाक़ात नहीं कर सकते और उनके साथ व्यक्तिगत रूप से बात नहीं कर सकते! तो वे ज़ोर-शोर के साथ घोषणा करते हैं: मैं ऐसा गुरु हूँ जो दीक्षा नहीं देता! यह कहना उन्हें अपने भक्तों की नज़रों में और भी महान और विशिष्ट बना देता है। ये लोग झांसे में आ जाते हैं और इस भ्रम में फंस जाते हैं कि उनका गुरु दूसरे सभी गुरुओं की तुलना में ज़्यादा महान और बेहतर है। यहाँ तक कि वे यह भी समझते हैं कि आज तक उन जैसा गुरु पैदा नहीं हुआ, जो कि दीक्षा भी नहीं देता और उसके भक्तों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगती है।
इनमें से कुछ भक्त पहले से ही यह समझे हुए होते हैं कि गुरुवाद कोई बहुत अच्छी बात नहीं है। वास्तव में वे पारंपरिक रूप से चली आ रही गुरु की गुलामी की प्रथा को पसंद नहीं करते और सोचते हैं कि गुरु शिष्य परंपरा अब ज़्यादा विकसित हो गई है, जब कि वे इसके सभी लाभ पा रहे हैं, गुरु अब लाखों की संख्या में शिष्यों का उत्पादन करता है। जब उनसे इस बारे में पूछा जाता है तो वे बताते हैं कि वे दरअसल इस गुरु के वैसे पारंपरिक शिष्य नहीं हैं, गुरु तो बस हमारा 'आध्यात्मिक सलाहकार' (mentor) है। वही पुरानी बात कहने का यह एक फैशनबल और आधुनिक तरीका है।
ये शिष्य अपने आपको पूरी तरह से गुरु को समर्पित कर देते हैं और उसके साथ बहुत नजदीकी रिश्ता होने का भ्रम पैदा करते हैं, जोकि दरअसल होता नहीं। वे अपने 'आध्यात्मिक सलाहकार' के साथ दिमागी तार जुड़े होने की मूर्खतापूर्ण बात करते हैं, भले ही सड़क पर आमने-सामने पड़ने पर उनका गुरु उन्हें पहचान भी न पाए। आपको बधाई कि आपके पास एक पित्रतुल्य व्यक्ति है जो इतना भी नहीं जानता कि आप हैं कौन!
कभी न कभी इस करीबी रिश्ते की कल्पना उनके लिए खतरनाक भी हो सकती है। 'आध्यात्मिक सलाहकार' शब्द में जिस कल्पनातीत नजदीकी का अर्थ निहित है उसके बारे में वे सोच भी नहीं कर सकते और न वह उनके बीच स्थापित हो पाता है। और जब वे पाते हैं कि उनकी कल्पना, कोरी कल्पना भर थी और वे अपने गुरु के लिए हमेशा ही एक अजनबी थे तो वे निराशा के गहरे, अंधे कुएं में गिर पड़ते हैं। फिर उनका जीवन दिशाहीन होकर भटकने लगता है और उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने इतने साल एक काल्पनिक संसार में, एक भ्रम में बरबाद कर दिये।
मैं समझता हूँ कि आधुनिक गुरु, लोगों के लिए, अतीत के गुरुओं से भी ज़्यादा खतरनाक है।