अगर मैं, आप और हम सब ईश्वर हैं तो आप ये उपदेश किसे दे रहे हैं? – 21 जून 2013
मुझे विश्वास है कि आपने कभी न कभी वेदान्त के दर्शन के बारे में अवश्य सुना होगा जो यह कहता है कि "मैं ही ईश्वर हूँ, आप भी ईश्वर हैं और सभी ईश्वर हैं।" यह दर्शन हमें यह सिखाता है कि जो कुछ भी आपके आस-पास है सभी ईश्वर के ही रूप हैं। एक समय ऐसा भी था जब मैं इस दर्शन के प्रति बहुत आकर्षित था लेकिन ईश्वर और धर्म पर विश्वास समाप्त होने के बाद मैंने इस दर्शन पर भी बहुत विचार किया, जिसका सार आज आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूँ।
अगर सभी वस्तुएँ और सारे व्यक्ति ईश्वर हैं तो फिर आप किसे यह बताना चाहते हैं? आप ईश्वर हैं-तो फिर आप ईश्वर के बारे में ही उपदेश क्यों दे रहे हैं? अगर आप ईश्वर हैं तो आपको ऐसे प्रचार से ऊपर होना चाहिए जिसमें दूसरों को कायल करने की कोशिश की जाती है। या तो आपमें इतनी क्षमता होनी चाहिए कि दूसरे स्वतः आप पर विश्वास करें क्योंकि आप तो सब कुछ कर सकने वाले सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। या फिर आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि वे आप पर विश्वास नहीं करते, क्योंकि आप तो जानते ही हैं कि ईश्वर के रूप में आपका अस्तित्व है ही।
लेकिन थोड़ा रुकिए। अगर आपके आस-पास के सभी व्यक्ति भी ईश्वर हैं तो फिर इस प्रश्न के साथ कि ‘आप क्यों उपदेश दे रहे हैं’ के साथ ही यह प्रश्न भी उपस्थित हो जाता है कि ‘आप किसे उपदेश दे रहे हैं’? अगर सामने वाला भी ईश्वर ही है तो उसे भी जानना चाहिए कि सभी ईश्वर हैं, जैसा कि आप जानते हैं। इसलिए आखिर उन्हें ईश्वर के विषय में उपदेश देने की आवश्यकता ही क्या है?
इसका तो मतलब यही हुआ कि या तो आप अपने विश्वास पर दृढ़ नहीं हैं कि आप ईश्वर हैं या फिर आप यह विश्वास नहीं करते कि सामने वाला, जिसे आप अपना उपदेश सुना रहे हैं, ईश्वर है। अर्थात, आप जो कह रहे हैं उस पर वास्तव में आपका विश्वास नहीं है। जो इस दर्शन के बारे में सुनता है या पढ़ता है, उसे बड़ा अच्छा लगता है, क्योंकि ये शब्द बड़े मोहक हैं मगर उनमें इसके अलावा कुछ नहीं है!
इन शब्दों से आप किसी का दुख-दर्द नहीं मिटा सकते। किसी अन्याय, शोषण, तानाशाही या अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने में भी ये शब्द मदद नहीं कर सकते। क्यों? क्योंकि जो अन्याय कर रहा है, शोषण कर रहा है, तानाशाह, अपराधी, हत्यारा और बलात्कारी, सभी, हैं तो ईश्वर ही!
यहाँ तक कि आप किसी से प्रेम भी नहीं कर सकते! आप पूछेंगे, प्रेम क्यों नहीं कर सकते भाई? यदि कोई अच्छा व्यक्ति है और आप मानते हैं कि वह ईश्वर जैसा है, उससे निश्चय ही आपको प्रेम हो जाना चाहिए! लेकिन आप यह देखिए कि प्रेम के लिए कम से कम दो लोग तो चाहिए और यहाँ तो सब मिलाकर एक ही हैं!
सिद्धान्त के रूप में यह बड़ा सुहावना लगता है मगर व्यवहार में इस सिद्धान्त का कोई अर्थ नहीं है। इस सिद्धान्त ने मुझे एक बार पुनः यह समझाया कि कैसे धर्म ने ईश्वर नाम का एक काल्पनिक चरित्र गढ़ा है और इस बार वह कोई ‘एकमात्र’ नहीं बल्कि ‘सब कुछ’ है। लोगों को बेवकूफ बनाने का एक नया तरीका! धर्मग्रंथों में इतने सारे अंतर्विरोध हैं कि एक विचार या सिद्धान्त को समझने में आपको वर्षों लग जाते हैं और फिर कोई दूसरा विचार सामने आता है और पिछले विचार को भूल-भालकर इस दूसरे विचार को समझना पड़ता है।
लेकिन, दोनों में से कोई भी आपके किसी काम का नहीं है! इसलिए निस्संकोच अपने मोटे-मोटे, विशालकाय धर्मग्रंथों को रद्दी की टोकरी में फेंक दीजिए और धर्मों को तिलांजलि दे दीजिए। ये अपने पेचीदा दार्शनिक सिद्धांतों से आपके दिमाग को न सिर्फ उलझाते हैं, समय बर्बाद करते हैं, बल्कि एक तरह का फितूर भी पैदा करते हैं!
आखिर, प्रेम और ईमानदारी के साथ जीवन गुजारने के लिए आपको इन धर्मग्रंथों, ईश्वर और दार्शनिक विचारों की आवश्यकता ही क्या है?
You must log in to post a comment.