आज मैं आपका परिचय हमारे स्कूल की एक सबसे छोटी लड़की से करवाना चाहता हूँ, जिसका नाम प्रतिज्ञा है और जो सिर्फ पाँच साल की है। प्रतिज्ञा वृंदावन के एक सबसे गरीब इलाके में रहती है, जहाँ हमारे स्कूल के और भी बहुत से बच्चे रहते हैं। और उसके परिवार की भी वही समस्या है, जो हमारे स्कूली बच्चों के अधिकांश परिवारों की है: पिता को सिर्फ आधे माह ही रोजगार मिल पाता है!
प्रतिज्ञा के माता-पिता पिछले सात साल से शादीशुदा हैं। जैसा कि बहुत से भारतीय परिवारों में चलन है, वे भी एक संयुक्त परिवार में रहते हैं। उनके विवाह के कुछ माह पश्चात ही प्रतिज्ञा की माँ गर्भवती हो गई और उसके कुछ माह बाद प्रतिज्ञा का जन्म हुआ-फिर वही, जो अक्सर भारतीय परिवारों में होता है।
कुछ सालों बाद वही हुआ, जो आजकल विवाह के साल भर बाद ही अक्सर होने लगा है: संयुक्त परिवार टूटा तो नहीं लेकिन उनकी रसोइयाँ अलग हो गईं, अर्थात, प्रतिज्ञा के पिता को अपनी पत्नी और होने वाली बच्ची की परवरिश की ज़िम्मेदारी स्वयं अकेले उठानी होगी और परिवार के दूसरे पुरुष सदस्यों की कमाई पर अपने लिए आर्थिक मदद की आस छोड़नी होगी।
पिता साधारण मजदूर है, जैसा कि उसका पिता और दोनों भाई भी हैं। उसकी पत्नी बताती है कि वह संगतराश है, जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि वह निर्माणाधीन इमारतों में फर्श पर ग्रेनाइट या मार्बल बिछाने के काम में सहायक के रूप में काम करता है क्योंकि वह स्वयं कुशल मजदूर नहीं है बल्कि वह सामान्य मजदूर है। वह पत्थरों को ढोकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता है, सीमेंट का मिश्रण तैयार करता है और उनके लिए, जो वास्तव में फर्श पर मार्बल बिछाते हैं, ऐसे ही दूसरे साधारण काम करता है। और क्योंकि काम के लिए उसका किसी के साथ कोई पक्का समझौता नहीं है और न ही वह किसी स्थापित कंपनी या किसी ठेकेदार का स्थायी नौकर है, उसे रोज़ सबेरे काम ढूँढ़ने निकलना पड़ता है।
प्रतिज्ञा की माँ बताती है कि उसे मुश्किल से सिर्फ आधे माह ही काम मिल पाता है, जिसका अर्थ यह हुआ कि दो-दो बच्चों-प्रतिज्ञा का एक तीन साल का भाई भी है-के राशन के लिए, कपड़े लत्तों के लिए परिवार को नियमित रूप से आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
ऐसे में, पाँच साल की उम्र होते ही प्रतिज्ञा को स्कूल भेजने की समस्या पेश आई। लेकिन कहाँ? सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर इतना खराब होता है कि लड़की को वहाँ भेजना लगभग समय का अपव्यय ही था। और निजी स्कूल बहुत ख़र्चीले हैं और स्कूल फीस और परीक्षा फीस अदा करना और वर्दियाँ, किताब-कापियाँ खरीदने का खर्च वहन करना उनके लिए असंभव था।
इन्हीं सब कारणों से प्रतिज्ञा की माँ अपनी बेटी को लेकर ठीक भर्ती के समय हमारे पास आई और 60 नई भर्ती होने वाली लड़कियों में से एक प्रतिज्ञा भी थी! अब हमारे स्कूल में वह पूरी तरह मुफ्त शिक्षा पा रही है और सिर्फ शिक्षा ही नहीं पा रही है बल्कि किताबें, कापियाँ, पेंसिलें और गरमागरम भोजन भी पा रही है-जिनके लिए उसके परिवार को एक नया पैसा खर्च नहीं करना पड़ता!
आप भी प्रतिज्ञा जैसे बच्चों का सहारा बन सकते हैं और उन्हें शिक्षित करने के काम में हमारी मदद कर सकते हैं-किसी एक बच्चे को या बच्चों के एक दिन के भोजन को प्रायोजित करके!