कल मैंने बताया था कि नास्तिकता और आस्था का प्रश्न भारत में क्यों पश्चिम के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इसलिए कि यहाँ लोग ईश्वर और धर्म की परवाह ज़्यादा करते हैं! मैंने ज़िक्र किया था कि मेरे मुताबिक़, जब अधिक से अधिक लोग धर्म का त्याग कर देंगे और नास्तिक बन जाएँगे तब यह संसार अधिक बेहतर जगह हो जाएगी। आज मैं इस कथन की कुछ विस्तार से व्याख्या करते हुए स्पष्ट करना चाहता हूँ कि क्यों ईश्वर पर आपकी आस्था या अविश्वास से कोई फर्क नहीं पड़ता!
मैं इस बात को एक बार और स्पष्ट करना चाहता हूँ: वास्तव में मैं इस बात की ज़्यादा परवाह नहीं करता कि आप ईश्वर पर आस्था रखते हैं या नहीं। दोनों ही स्थितियों में मैं आपका दोस्त बन सकता हूँ-और दोनों ही स्थितियों में मैं आपका मित्र नहीं भी हो सकता। अगर बीस, सौ या एक हज़ार लोग कह दें कि वे ईश्वर पर आस्था नहीं रखते तो यह तथ्य भी इस संसार को बेहतर स्थान नहीं बना सकता। वास्तव में आस्था के खिलाफ मैं नहीं हूँ बल्कि लोगों की आस्था का लाभ उठाकर उनका शोषण करने, उनके साथ धोखेबाज़ी करने, उनके मस्तिष्क को बरगलाने की घिनौनी हरकतों के खिलाफ हूँ!
इसलिए मैं अपने विचारों और शब्दों को सिर्फ हिन्दू धर्म या भारत के संदर्भ में सीमाबद्ध नहीं करता! मुझे लगता है कि वे दूसरे धर्मों और आस्थाओं के लिए भी उतने ही प्रासंगिक हैं क्योंकि आस्था का सवाल आने पर लोगों का शोषण और भी कई तरीकों से किया जा रहा है! मैं यहाँ रहस्यवादी रीति-रिवाजों और ‘आध्यात्मिकता’ को भी साफ तौर पर इसमें शामिल करना चाहता हूँ!
ये सब एक ही हैं: कुछ लोगों का समूह एक किताब लिखता है और वह धर्मग्रंथ बन जाता है और फिर दूसरों के लिए उसका अनुसरण करना आवश्यक बना दिया जाता है। किसी धर्म का मुखिया कोई किताब छपवाता है और फिर दूसरों को उन नियमों में बंधकर रहना लाज़िमी है। ऐसे गुरु, जो अपने अनुयायियों को बताते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। संप्रदायों के नेता, जो अपने भक्तों को भेड़ों की तरह हाँकते हैं। अतीन्द्रियदर्शी, जो यह देखने का दावा करते हैं कि भविष्य में क्या होने वाला है। अलौकिक ज्ञान का दावा करने वाले छद्म मनोविज्ञानी, जो उनका अनुसरण करने वालों को बताते हैं कि उनके मृत पूर्वज उनसे किन कार्यों की अपेक्षा कर रहे हैं।
जब मैं कहता हूँ कि मैं नास्तिक हूँ तो मैं इस संसार का निर्देशन करने वाले किसी "ब्रह्माण्ड" या किसी काल्पनिक आसमानी शक्ति पर भी विश्वास नहीं करता। संभव है, दूसरे लोग कुछ दूसरा सोचते हों। सिर्फ इस तथ्य से कि एक व्यक्ति ईश्वर या ऐसी ही किसी सत्ता पर विश्वास नहीं करता, दुनिया बेहतर नहीं हो जाने वाली है।
लेकिन, जब मैं कहता हूँ कि मैं अपनी मर्ज़ी से चलूँगा, जो काम मुझे अच्छा लगता है और जिससे दूसरों का भला होता है, वही करूँगा; दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाले, दुःख देने वाले काम नहीं करूँगा, उन्हें धोखा नहीं दूँगा, उनके साथ छल नहीं करूँगा- और कोई दूसरा भी मेरे पास आकर यही कहता है कि वह भी इसी नतीजे पर पहुँचा है- तब, मुझे लगता है कि दुनिया वाकई बेहतर जगह हो जाएगी!
लेकिन, क्योंकि धर्म में और आध्यात्मिकता में भी इतना अधिक छल-कपट है, ऐसा होने की अधिक संभावना तभी है जब कि आप धर्म और ईश्वर का त्याग कर देंगे । और मैं अपने इस विचार को अधिक से अधिक लोगों को बताता हूँ, और उसके बारे में लिखता रहता हूँ तो इसलिए कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस नतीजे पर पहुँचें और आगे किसी के झाँसे में न आएँ, दूसरों को अपना शोषण करने की इजाज़त न दें!